खुद को मजबूत नहीं करेगी तो खत्म हो जाएगी कांग्रेस
कांग्रेस में मची हलचल अस्वाभाविक नहीं है। हाल के चुनावों में पार्टी का रवैया अजीब किस्म का रहा है। कोई राजनीतिक दल भले चुनाव में रौंद दिया जाए लेकिन वह इस बात का जश्न मनाने लगे कि चलो हमने जिसको दुश्मन माना वह तो नहीं जीता तो फिर ऐसे दल के उत्थान के रास्ते बंद हो जाते हैं। कुछ कांग्रेस पार्टी के नेताओं का वक्तव्य देखिए जिस दिल्ली चुनाव परिणाम से उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें होनी चाहिए, उन्हें आत्म-मंथन करना चाहिए उसमें वे इससे संतुष्ट हैं कि भाजपा तो चुनाव नहीं जीती। यह एक प्रकार की नकारात्मक राजनीति है जो केवल पराभव की ओर ही ले जाएगी। इससे यह भी पता चलता है कि कांग्रेस किस तरह अपनी नीति रणनीति को लेकर दिशाभ्रम का शिकार हो चुकी है। हालांकि कुछ नेताओं ने अब खुलकर कहना आरंभ कर दिया है कि या तो हम पुनरावलोकन कर अपने को बदलें या फिर अप्रासंगिक होने को तैयार रहें। यह बात ठीक है कि लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा झारखंड में पराजित हुई, हरियाणा में बहुमत से पीछे रह गई तथा दिल्ली में जहां वह सरकार बनाने की उम्मीद कर रही थी वहां वह सीटों के मामले में हाशिए की पार्टी बन गई। भाजपा के लिए निस्संदेह यह स्थिति चिंताजनक है और विपक्ष इसमें भविष्य के चुनावों को लेकर उम्मीद कर सकता है। किंतु, कांग्रेस अगर स्वयं अपने दम पर टक्कर देने की स्थिति में रहेगी तभी तो उसकी उम्मीदें साकार होने की संभावना बन सकती है।
कांग्रेस कह सकती है कि आज महाराष्ट्र एवं झारखंड में हम सत्ता में हैं। हरियाणा में भी हमने अपना प्रदर्शन थोड़ा ठीक किया है। आप अगर इस एक पक्ष को देखेंगे तो जरुर खुश होंगे। लेकिन नेतृत्व की भूमिका पार्टी की हैसियत के वास्तविक मूल्यांकन एवं उसके अनुरुप सुधारात्मक और परिवर्तनात्मक कदम उठाने की होती है। महाराष्ट्र कांग्रेस के सर्वशक्तिमान वाला प्रदेश था। पिछले चुनाव में 147 सीटों पर लड़कर वह केवल 44 सीटें जीत पाई और वह भी एनसीपी के गठबंधन के कारण। एनसीपी ने 121 पर लड़कर 54 सीटें जीत ली। कांग्रेस वहां चौथे नंबर की पार्टी हो चुकी है। पूरा नेतृत्व शरद पवार के सामने नतमस्तक है। अगर शिवसेना ने परिणाम के बाद मुख्यमंत्री पद की जिद नहीं की होती या भाजपा ने उसकी मांग स्वीकार ली होती तो उनको बहुमत प्राप्त था, आराम से सरकार चल रही होती। झारखंड में भी कांग्रेस मुख्य पार्टी थी। भाजपा का प्रवेश बाद में हुआ। झारखंड मुक्ति मोर्चा वहां था अवश्य लेकिन वह कभी मुख्य शक्ति नहीं था। आज कांग्रेस वहां शासन में है लेकिन झामुमो की बदौलत दूसरे स्तर की भूमिका में। उसे जो सीटें मिलीं उसमें झामुमो, राजद एवं भाजपा के विद्रोहियों और असंतुष्टों की बड़ी भूमिका थी। इतने के बावजूद कांग्रेस को केवल 13.8 प्रतिशत मत प्राप्त हुआ। महाराष्ट्र की तरह ही कांग्रेस वहां भी सिमट चुकी है। अपनी बदौलत लोकसभा की एक भी सीट जीतने की स्थिति में वह नहीं है। कांग्रेस के साथ झामुमो एवं राजद का मत मिला दीजिए तब वह भाजपा के 33.4 प्रतिशत के बराबर होता है। भाजपा में झारखंड विकास मोर्चा के विलय के बाद उसका साढ़े पांच प्रतिशत मिल गया है और फिर अगले चुनाव में क्या हो सकता है, इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है।
यह तो हमने कुछ उदाहरण दिए हैं ताकि कांग्रेस इन तथ्यों के आइने में अपना मूल्यांकन कर सके। आज की हालत में कांग्रेस का प्रभावी जनाधार केवल 10 राज्यों में बचा हुआ है। यानी देश के ज्यादातर राज्यों से वह समाप्तप्राय है। जरा नजर डालिए, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और पूर्वोत्तर के ज्यादातर राज्यों से कांग्रेस खत्म है। केरल में भी भाजपा का ग्राफ बढ़ रहा है। लोकसभा चुनाव में 17 राज्यों एवं केन्द्र शासित प्रदेशों में उसका खाता तक नहीं खुला जिसमें वे राज्य भी शामिल हैं जहां उसका शासन है। सबसे लंबे समय तक देश तथा सभी राज्यों में शासन करने वाली पार्टी की यह दुर्दशा भी उसे नए सिरे से पार्टी को खड़ा करने के लिए प्रेरित नहीं करती तो फिर कोई इसके बेहतर भविष्य की कामना कैसे कर सकता है? भाजपा देश की सबसे बड़ी पार्टी है और उससे संघर्ष करने की भावना स्वाभाविक है। लेकिन उस संघर्ष में अपना ही अस्तित्व नष्ट होता चला जाए और दूसरों की सफलता तथा दूसरों की बदौलत कुछ सीटें पाने या सरकार में शामिल होने का अवसर मिल जाने से ही नेतागण आह्लादित हो जाएं तो जाहिर है, कांग्रेस आत्मविनाश की ओर बढ़ रही है। कांग्रेस को पहले संघर्ष का अर्थ समझना होगा।
संघर्ष का मतलब केवल नरेन्द्र मोदी और अमित शाह पर तीखा हमला करना या उनके लिए अपमानजनक, निंदाजनक भाषा का प्रयोग करना कतई नहीं है। यह नीति कांग्रेस के लिए ही घातक साबित होती है। मोदी को सबसे ज्यादा निशाने बनाने का परिणाम उसे लोकसभा चुनाव में मिल चुका है। प्रधानमंत्री के लिए कांग्रेस के नेता जितने घटिया स्तर के शब्द होते हैं प्रयोग करते रहे और लोकसभा चुनाव में उसकी प्रतिक्रिया साफ देखने को मिली। इससे राहुल गांधी की स्वयं की एक अपरिपक्व, राजनीति की अंतर्धारा को न समझने वाला तथा सतही सोच की छवि और पुख्ता होती है। दिल्ली चुनाव प्रचार में ही उन्होंने जिस तरह कहा कि ये जो नरेन्द्र मोदी हैं न छ: महीने सात-आठ महीने बाद अपने घर से नहीं निकलेगा। नौजवान इसे डंडा मारेंगे। राजनीति में भाषा और हाव-भाव की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जनमानस में आपकी छवि इसी से निर्मित होती है। जब कांग्रेस के शीर्ष नेता का व्यवहार ऐसा है तो उसके नीचे के स्तर के नेता इससे आगे जाकर बोल सकते हैं।
एक मान्य स्तर से नीचे उतरकर नेता तभी हमला करते हैं जब उनके पास कोई विचारधारा और बढ़े आदर्श नहीं होते। आदर्श भी विचारधारा से ही पैदा होता है। कांग्रेस के लिए आत्मसुधार का शायद अंतिम मौका होगा। केजरीवाल ने चुनाव के कई महीने पहले से मोदी की निंदा तो दूर, नाम लेना तक बंद कर दिया था। हिन्दुत्व, सेक्यूलरवाद, सांप्रदायिकता आदि पर कोई बात ही नहीं की। इससे भी कांग्रेस कुछ सीखे तो शायद वह भविष्य में भाजपा के खिलाफ बेहतर रणनीति बना सकती है। अगर आपको भाजपा से लड़ना है तो आपको उसके लिए वैचारिक आधार निर्माण करना होगा, फिर संगठन को मजबूत करने के लिए दिन-रात प्रयत्न करना होगा और इन सबके साथ ही एक परिपक्व, सूझबूझ वाला, संयत और संतुलित भाषा का प्रयोग करने वाला नेता खड़ा करना होगा। मो. 98110-27208