भयावह है अमीर-़गरीब के बीच बढ़ती खाई

अमीर और ज्यादा अमीर होते जा रहे हैं और गरीब और ज्यादा गरीब। यह एक घिसा-पिटा जुमला है जो अनगिनत बार भाषणों में हम सुन चुके हैं। अब यह बोरियत पैदा करता है लेकिन हकीकत यह है कि यह जुमला सोलह आने सही है। भारत में अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई बीते 5 वर्षों में और ज्यादा गहरी हो गई है। आज देश की आधी संपत्ति देश के चंद अमीरों की तिजोरियों में बंद है जबकि गरीब की थाली में मुट्ठीभर चावल भी बमुश्किल दिखाई देते हैं। यह गंभीर चिंता का विषय है। दुनिया के ज्यादातर मुल्कों की तरह भारत भी आर्थिक समृद्धि के वास्ते पूंजीवाद और बाजारवाद के सिद्धांतों की डगर अपना रहा है जबकि हकीकत में यह रास्ता असमानता की गहरी खाई की ओर ढकेलने वाला साबित हो रहा है। लिहाजा, विकास के पूंजीवादी तंत्र पर सवार हो कर असमानता नहीं मिटाई जा सकती। केंद्र सरकार की गलत नीतियों के कारण देश एक बड़े संकट से गुजर रहा है। गणतंत्र का स्थान अमीर तंत्र ने ले लिया है। अशिक्षा, बेरोजगारी और बढ़ती महंगाई ने गरीब की कमर तोड़ दी है।  
 नई कॉर्पोरेट संस्कृति ने आर्थिक विषमता को बढ़ावा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। देश की बड़ी आईटी कंपनियों के सीईओ का वेतन उन्हीं कंपनियों के एक औसत कर्मी से 400 गुना ज्यादा है। दौलत के थोड़े से लोगों के हाथों में सिमट जाने का असर देश की राजनीति पर भी पड़ा है क्योंकि पैसे के दम पर अरबपतियों ने राजनेताओं को अपना गुलाम बना लिया है और यह अब इस तरह दिखने लगा है कि जैसे देश की राजनीति और सरकार उद्योगपति चला रहे हैं। यह सही है कि देश में पहले के मुकाबले समृद्धि आई है लेकिन इसके साथ आर्थिक विषमता ने भी विकराल रूप ले लिया है। अब यह केवल नैतिक मुद्दा ही नहीं रहा, बल्कि यह चरम विषमता आर्थिक संवृद्धि को भी प्रभावित कर रही है।  
सरकार कह रही है कि गरीबाें की संख्या घट रही है लेकिन वह यह 1962 में निर्धारित नियमों के आधार पर कह रही है। 1962 में बीपीएल के नियम बनाते समय इसमें शिक्षा और स्वास्थ्य को शामिल नहीं किया गया। उस समय यह माना गया कि शिक्षा और स्वास्थ्य सरकार की जिम्मेदारी है लेकिन सरकार ऐसा कर पाने में विफल रही है। गरीब लोग अस्वच्छ बस्तियों में रहते हैं और ज्यादातर अस्वच्छता से संबंधित काम करते हैं जिसकी वजह से बार-बार बीमार हो जाते हैं। इस वजह से उन्हें अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करना पड़ता है। शिक्षा पर भी उन्हें खर्च करना पड़ रहा है जिसकी वजह से उनके पास पैसे की बचत बहुत कम होती है। 
सरकार इन आंकड़ों को गणना में शामिल नहीं करती। यही कारण है कि भारत अरबपतियों की संख्या में चौथे नंबर पर है लेकिन प्रति व्यक्ति आय में नीचे से तीसरे नंबर पर है। 1991 से अब तक न्यूनतम मजदूरी में 3 गुना इजाफा हुआ है जबकि इसी दौरान कंपनी के एमडी के वेतन में 300 गुना इजाफा हुआ है। इसकी जिम्मेदार सरकार की प्रो-कॉरपोरेट नीति तथा कालेधन की अर्थ-व्यवस्था है। इसका फायदा चुनिंदा लोगों को मिल रहा है। गरीब और गरीब तथा अमीर और अमीर होता जा रहा है। ये नीति जारी रही तो आने वाले समय में गरीब और अमीर के बीच असमानता और बढ़ेगी। 
विषम परिस्थितियों के बीच हैरान करने वाली खबर भी है और वह यह कि न्यू वर्ल्ड वैल्थ रिपोर्ट की मानें तो भारत का नाम अति धनवान 10 देशों की सूची में शुमार हो चुका है और इस सूची में भारत का स्थान 7वां है जबकि हकीकत यह है कि औसत भारतीय बहुत गरीब है। आजादी के बाद से ही देश गरीबी के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा है। गरीबी से आज तक देश को आजादी नहीं मिल पाई है। यह बहुत ही चिंता का विषय है कि देश की अर्थव्यवस्था में हुई वृद्धि का फायदा मात्र कुछ लोगों के हाथों में सिमटता जा रहा है। अरबपतियों की संख्या में बेतहाशा बढ़ोत्तरी फलती-फूलती अर्थ-व्यवस्था की नहीं, बल्कि एक विफल अर्थ-व्यवस्था की निशानी है। 
अमीर, ऊंचे रसूखदार और बड़ी पहुंच रखने वाले लोग गलत काम करने पर भी बच जाते हैं। भारत एक कमजोर देश है। हम प्रशासनिक तौर पर गलत काम रोकने की क्षमता नहीं रखते बल्कि यह भी कि हम गलत करने वाले को सजा भी नहीं देते जब तक कि वह कमजोर और छोटा न हो। अगर हमें लगातार विकास करते रहना है तो इस संस्कृति को खत्म करना होगा। (अदिति)