ऐतिहासिक व सांस्कृतिक धरोहर हैं क्षेत्रीय भाषाएं

अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस प्रत्येक वर्ष 21 फरवरी को मनाया जाता है। 17 नवम्बर, 1999 को यूनेस्को ने इसे स्वीकृति दी। इस दिवस
को मनाने का उद्देश्य है कि विश्व में भाषाई एवं सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषिता को बढ़ावा मिले। 2008 को अंतर्राष्ट्रीय भाषा वर्ष
घोषित करते हुए, संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के महत्व को फिर दोहराया। कोई भी भाषा जब मातृभाषा नहीं
रह जाती है तो उसके प्रयोग की अनिवार्यता में कमी और उससे मिलने वाले रोजगारमूलक कार्यों में भी कमी आने लगती है। जिसअत्याधुनिक पाश्चात्य सभ्यता पर गौरवान्वित होते हुए हम व्यावसायिक शिक्षा और प्रौद्योगिक विकास के बहाने अंग्रेज़ी का प्रभाव बढ़ाते जा रहे हैं, दरअसल यह छद्म भाषाई अहंकार है। क्षेत्रीय भाषाएं और बोलियां हमारी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक धरोहरें हैं। इन्हें मुख्यधारा में लाने के बहाने इन्हें हम तिल-तिल मारने का काम कर रहे हैं। कोई भी भाषा कितने ही छोटे क्षेत्र में, भले कम से कम लोगों द्वारा बोली जाने के बावजूद उसमें पारम्परिक ज्ञान के असीम खजाने की उम्मीद रहती है। ऐसी भाषाओं का उपयोग जब मातृभाषा के रूप में नहीं रह जाता है तो वे विलुप्त होने लगती हैं। जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने अपने शोध से भारत के भाषा और संस्कृति संबंधी तथ्यों से जिस तरह समाज को परिचित कराया था, उसी तर्ज पर अब नये सिरे से गंभीर प्रयास किए जाने की ज़रूरत है, क्योंकि हर पखवाड़े एक भाषा मर रही है। इस दायरे में आने वाली खासतौर से आदिवासी व अन्य जनजातीय भाषाएं हैं, जो लगातार उपेक्षा का शिकार होने के कारण विलुप्त हो रही हैं। ये भाषाएं बहुत उन्नत हैं और पारंपरिक ज्ञान की कोष हैं। भारत में ऐसे हालात सामने भी आने लगे हैं कि किसी एक इंसान की मौत के साथ उसकी भाषा का भी अंतिम संस्कार हो जाए। 26 जनवरी, 2010 के दिन अंडेमान द्वीप समूह की 85 वर्षीय बोआ के निधन के साथ एक ग्रेट अंडेमानी भाषा ‘बो’ भी हमेशा के लिए विलुप्त हो गई। इस भाषा को जानने, बोलने और लिखने वाली वे अंतिम इंसान थीं। इसके पूर्व नवम्बर, 2009 में एक और महिला बोरो की मौत के साथ ‘खोरा’ भाषा का अस्तित्व समाप्त हो गया। किसी भी भाषा की मौत सिर्फ एक भाषा की ही मौत नहीं होती, बल्कि उसके साथ ही उस भाषा का ज्ञान भंडार, इतिहास, संस्कृति, उस क्षेत्र का भूगोल एवं उससे जुड़े तमाम तथ्य और मनुष्य भी इतिहास का हिस्सा बन जाते हैं। इन भाषाओं और इन लोगों का वजूद खत्म होने का प्रमुख कारण इन्हें जबरन मुख्यधारा से जोड़ने का छलावा है। ऐसे हालातों के चलते ही अनेक आदिम भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं।  भारत सरकार ने उन भाषाओं के आंकड़ों का संग्रह किया है, जिन्हें 10 हज़ार से अधिक संख्या में लोग बोलते हैं। 2001 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार ऐसी 122 भाषाएं और 234 मातृभाषाएं हैं। भाषा-गणना की ऐसी बाध्यकारी शर्त के चलते जिन भाषा व बोलियों को बोलने वाले लोगों की संख्या 10 हज़ार से कम है उन्हें गिनती में शामिल ही नहीं किया गया। भारत की तमाम स्थानीय भाषाएं व बोलियां अंग्रेज़ी के बढ़ते प्रभाव के कारण संकटग्रस्त हैं।व्यावसायिक, प्रशासनिक, चिकित्सा, अभियांत्रिकी व प्रौद्योगिकी की आधिकारिक भाषा बन जाने के कारण अंग्रेज़ी रोज़गारमूलक शिक्षा का प्रमुख आधार बना दी गई है। इन कारणों से उत्तरोत्तर नई पीढ़ी मातृभाषा के मोह से मुक्त होकर अंग्रेज़ी अपनाने को विवश है। प्रतिस्पर्धा के दौर में मातृभाषा को लेकर युवाओं में हीन भावना भी पनप रही है। इसलिए जब तक भाषा संबंधी नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन नहीं होता तब तक भाषाओं की विलुप्ति पर अंकुश लगाना मुश्किल है। भाषाओं को बचाने के लिए समय की मांग है कि क्षेत्र विशेषों में स्थानीय भाषा के जानकारों को ही निगमों, निकायों, पंचायतों, बैंकों और अन्य सरकारी दफ्तरों में रोजगार दिए जाएं। इससे अंग्रेज़ी के फैलते वर्चस्व को चुनौती मिलेगी और ये लोग अपनी भाषाओं व बोलियों का संरक्षण तो करेंगे ही उन्हें रोज़गार का आधार बनाकर गरिमा भी प्रदान करेंगे। ऐसी सकारात्मक नीतियों से ही युवा पीढ़ी मातृभाषा के प्रति अनायास पनपने वाली हीन भावना से भी मुक्त होगी। अपनी सांस्कृतिक धरोहरों और स्थानीय ज्ञान परम्पराओं को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए ज़रूरी है कि हम भाषाओं और उनके जानकारों की वंश परम्परा को भी अक्षुण्ण बनाए रखने की चिंता करें।

—प्रमोद  भार्गव