आओ, पेड़ों को बचाएं

पेड़ों को बचाने या उनकी उम्र कतई कम न करने के लिए इन दिनों देश के कुछ हिस्सों में एक नई पहल हो रही है, जिसे पेड़ों पर टँगे विज्ञापनों और पेड़ों पर ठोकी जाने वाली कीलों से जोड़कर देखा जा सकता है। यह अभियान मुख्य रूप से तमिलनाडु और महाराष्ट्र में चल रहा है। चैन्नई स्थित तमिलनाडु की हाइकोर्ट ने महाचैन्नई निगम के तहत कानून बना दिया है कि पेड़ों पर कीलें, विज्ञापन, बैनर तथा लाइट लगाने पर तीन साल की जेल तथा 25 हजार रू. जुर्माना भरना पड़ सकता है। उधर, मुंबई में पेशे से इंजीनियर एक नौजवान द्वारा छेड़े गए  पेड़ों से कीलें निकालने का अभियान इतना सफ ल हो रहा है कि वहाँ विभिन्न तबकों के लोग 80 हजार कीलें विभिन्न पेड़ों से निकाल चुके हैं। पुणे के पास स्थित पिपरी-चिंचवड के निगम आयुक्त ने प्रस्ताव सम्बन्धित विभागों को भेजा है कि यदि वृक्षों पर कीलें लगी हुई पाई गईं तो सम्बन्धितों को तीन महीने की कैद तथा पांच हजार रुपए का जुर्माना लगाया जाना चाहिए। उक्त आयुक्त ने इस तरह से कीलें लगाने को अपराध तक घोषित करने की बात अपने प्रस्ताव में कही हैं। वहीं भोपाल में 50 से अधिक स्कूल बच्चों ने कुछ संवेदनशील नागरिकों के साथ 300 से ज्यादा पेड़ों की कीलें निकाल दी हैं। ट्री एक्ट 1975 के अनुसार पेड़ों को हानि पहुंचाना अपराध है। रास्तों पर लगे पेड़ सार्वजनिक संपत्ति हैं जिन्हें किसी भी कीमत पर नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता। भारतीय वैज्ञानिक सर जगदीशचन्द्र बोस ने 10 मई सन् 1901 में साबित कर दिया था कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है। पौधों में जीवन साबित करने का यह प्रयोग लंदन की रॉयल सोसायटी में हुआ और दुनिया सर जगदीशचन्द्र बोस का लोहा मान गई। उन्होंने पौधों में धीमी गति या तेज गति से हो रही वृद्धि को मापने के लिए एक अत्यंत संवेदी यंत्र बनाया था जिसे क्रेस्टोग्रॉफ नाम दिया गया था। यह उपकरण पौधों की वृद्धि को स्वत: दस हजार गुना बढ़ाकर दर्ज करने की क्षमता रखता था। इस तरह विज्ञान ने तो यह खोज लिया कि पेड़-पौधों तक अपने सुख-दुख का इजहार अपने तरीके से करते हैं। कम होते पेड़ों के बारे में नेचर जर्नल की रिपोर्ट चिंतनीय है कि जब से मानव सभ्यता की शुरूआत हुई तब से मौजूद पेड़ों की संख्या में अब तक 46 फीसदी की कमी आ चुकी है। दुनिया भर में हर साल 10 अरब पेड़ काटे जा रहे हैं। चिंता की बात यह भी है कि हर सैकेंडमें एक फुटबॉल के मैदान जितना जंगल भी काटा जा रहा है। यदि दुनिया में जंगलों के खात्मे की गति यही रही तो 2100 तक समूची दुनिया से जंगलों का पूरी तरह सफाया भी हो सकता है।प्रदूषण की मार झेलते शहरों के लिए पेड़ों की कमी भी जिम्मेदार है। शहरों के लोग कई बीमारियों से पीड़ित हैं। विशेषकर अस्थमा जैसी बीमारी से लोग ज्यादा पीड़ित हैं। नेचर जर्नल की रिपोर्ट की मानें तो दुनिया भर में एक व्यक्ति के लिए 422 पेड़ मौजूद हैं। पेड़ों की संख्या के मामले में रूस सबसे आगे है। रूस में करीब 641 अरब पेड़ हैं। कनाडा दूसरे स्थान पर है, जहां पेड़ों की संख्या 318 अरब है। तीसरे स्थान पर ब्राजील है जहां 301 अरब पेड़ हैं तथा अमरीका में 228 अरब पेड़ हैं। हैरानी की बात यह है कि भारत में सिर्फ  35 अरब पेड़ हैं यानी एक व्यक्ति के लिए सिर्फ  28 पेड़। कहा जाता है कि पेड़ों की कतार धूल मिट्टी को 75 फीसदी तक कम कर देती है और 50 फीसदी तक शोर  को कम कर देती है। जो इलाका पेड़ों से घिरा होता है वह दूसरे इलाकों की तुलना में 9 डिग्री ठंडा रहता है तथा वहां का एक पेड़ इतनी ठंडक पैदा करता है जितना एक ए.सी. 10 कमरों में 20 घंटों तक चलने पर करता है। कम होते पेड़ों की वजह से कई और दुष्प्रभाव होते हैं जिसमें प्राकृतिक बाधाएँ भी शामिल हैं। वनों के विनाश के कारण वन्यजीव खत्म हो रहे हैं, वहीं पेड़ों की कई प्रजातियाँ भी लुप्त होने की कगार पर हैं। वनों की कटाई का प्राकृतिक जलवायु पर सीधा प्रभाव  पड़ता है, जिससे वैश्विक तापमान में वृद्धि होती है। बारिश भी अनियमित हो जाती है। इन सबके कारण ‘ग्लोबल वार्मिंग’ में इजाफा होता है। रेगिस्तान फैल रहा है। नदियों का पानी उथला तथा प्रदूषित हो रहा है क्योंकि उनके किनारों तथा पहाड़ों पर पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हो रही है। जंगल के लिए आदिवासियों का अस्तित्व आवश्यक है। जंगल का उपयोग कैसे करना है आदिवासियों को इसकी पूरी माहिती रहती है, क्योंकि वन संरक्षण के प्रति उनके मन में गहरा सम्मान होता है। वृक्षारोपण की कमी के कारण इस अनमोल प्राकृतिक संपत्ति का तेजी से क्षरण हो रहा है जो जीवन और पर्यावरण के संतुलन को खराब कर रहा है। जंगल की कटाई के कारण भारत में जानवर गाँवों में शरण ले रहे हैं। जंगली जानवरों का रहवासी इलाकों में घुसना आम बात हो गई है जो मानव जीवन के लिए खतरा है। वर्तमान में पेड़ों को बचाने के लिए जो भी जन आंदोलन हो रहे हैं, वह स्वागत योग्य हैं लेकिन आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि जोधपुर के खेजडली गांव में 230 वर्ष पूर्व 363 लोगों ने पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान तक दे दी थी। तब से लेकर आज तक उस गांव में बलिदान दिवस मनाया जाता है। इसके तहत वहां मेला लगता है जिसमें विश्नोई समाज के हजारों श्रद्धालु शिरकत करते हैं तथा बलिदानियों को श्रद्धांजलि देते हैं। वैसे भारत में कुछ साल पहले ‘चिपको आंदोलन’ काफी चर्चित हुआ था जिसके अगुवा ‘सुंदरलाल बहुगुणा’ थे। दरअसल, यह आंदोलन इसलिए प्रारम्भ किया गया था कि भारत के उत्तरी क्षेत्रों में सरकार ने पेड़ों की अंधाधुंध कटाई प्रारम्भ कर दी थी। सुंदरलाल बहुगुणा ने सैकड़ों की संख्या में ग्रामीणों को एकत्र किया और इनमें से एक ग्रामीण एक पेड़ से चिपक गया ताकि उस पेड़ को काटा ना जा सके। इस आंदोलन को काफी सफ लता मिली थी।