प्रेरणा

परमात्मा को प्राप्त करने के लिए एक व्यक्ति संन्यास लेकर जंगलों में कठिन तपस्या करने निकल गया। तीन वर्ष तक कठिन तपस्या की। कन्द-मूल और फल पर गुजारा किया। सर्दी, गर्मी और बरसात सभी को सहा, पर उसे परमात्मा नहीं मिले। मन में एक दिन विचार आया-संन्यास, तपस्या आदि सब बेकार हैं। संन्यास छोड़, वह वापिस अपने घर की ओर चल पड़ा। ज्यों ही अपने नगर में प्रवेश किया, उसे एक शानदार भवन दिखा। उस भवन पर एक नाम लिखा था, जो संन्यास लेने के पहले उसका मित्र था। सोचा मित्र से मिल लूं। भवन के अंदर गया तो उसका मित्र वहां मिल गया। मित्र को आश्चर्य हुआ और उससे पूछा, ‘संन्यास छोड़कर वापिस क्यों आ गये?’ वह बोला, ‘संन्यास में कुछ नहीं धरा है। खाली दु:ख भोगने होते हैं। न शांति मिली, न परमात्मा। पर तुम तो बड़े भाग्यशाली हो कि तीन साल में एक भव्य भवन बना लिया, जिसमें सब सुख-सुविधा दिख रही है।’मित्र ने कहा, ‘चलो, तुम्हें भवन दिखाऊं।’ यह मेरी बैठक का कमरा है, यह शयनकक्ष है, यह मनोरंजन कक्ष है, यह अध्ययन कक्ष है, यह ऑफिस है, यह बेटे का कमरा है और यह बेटी का कमरा है। वह बोला, ‘मित्र, तुमने सब कमरों के बारे में तो बता दिया, लेकिन जो आखिर में कमरा है, उसमें क्या है, यह नहीं बताया?’ मित्र बोला, ‘उसमें राम राम है।’उसे आश्चर्य हुआ। पूछ बैठा, ‘राम-राम भी क्या कोई चीज़ होती है, जो उस कमरे में है?’मित्र बोला, ‘अरे, तुम इतना भी नहीं समझे! राम राम का मतलब है कि वह खाली है, इसलिए तुम्हें नहीं बताया।’ मित्र के इतना कहते ही उसकी आंखें खुल गईं। सोचा-जो खाली होता है, उसमें ‘राम’ यानी ‘परमात्मा’ होता है। मैं तो खाली हुआ ही नहीं, मुझमें तो कितने ही विकार भरे हैं। इनसे खाली होऊंगा, तभी तो परमात्मा मिलेंगे। उसे बोध की किरण मिल गईं। वह फिर से साधना पथ पर निकल पड़ा, अपने को खाली करने। जिसकी आंखें खुली हों, उसको एक दीपक भी काफी प्रकाश दे देता है, पर अंधे के आगे करोड़ों दीपक भी जला दो तो उसे प्रकाश नहीं मिलेगा।