एक नई कार्य संस्कृति का जन्म

देश के नव-निर्माण के लिए मेहनत का कोई अर्थ नहीं रह गया है। यह बात पिछले दिनों कुछ इस प्रकार स्पष्ट हो गई, कि निरन्तर मेहनत करने वालों के माथे का पसीना भी शर्मिन्दा हो  गया।
शासनावधि समाप्त होने के बाद जब नये चुनाव की दुंदुभि बजती है, तो लगता है वक्त बदलने या युग पलटने का मौसम आ गया। सत्ता के शहसवार कभी रुखसत लेने के लिए तैयार नहीं होते। उन्हें लगता है उनके बाप-दादा जब अपनी राजनीतिक विरासत उन्हें सौंप गये, तो उसे अपनी तिजोरी में बंद करके रखना ही उनका परम धर्म है। धीरे-धीरे यह विरासत देश के उन दस प्रतिशत लोगों के पास सिमट गई, जिनके पास देश की सम्पदा पर अधिकार का हुक्मनामा है। चुनाव लड़ना अमीर करोड़पतियों का महंगा शौक हो गया, इसलिए देश की 90 प्रतिशत जनता चुनावी अखाड़े से छिटक कर दर्शक दीर्घा तक सिमट गई। उन्हें तो अब मेहनती नारे लगाने की आदत भी हो गई है। मेहनत का यही अर्थ मिला उन्हें। नारा लगता है ‘नेता जी संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं।’
भला कैसे है यह संघर्ष, कि जिसकी मेहनत का संदेश इन चुनावी योद्धाओं को मिला है। पहला संदेश तो यही है कि भाई जान, अब सड़कों पर आ कर वोटरों से उनके वोट मांगने का समय आ गया। पिछले पांच बरस के अपने शासन में उन्हें ‘परसू परसा और परसराम’ बनने की इच्छा तो होती रही। वे लखपति से करोड़पति और करोड़पति से अरबपति हो जाने के चक्रव्यूह तोड़ते रहे। जब राजनीति के अखाड़े में उतरे थे तो साइकिल पति थे, अब मर्सिडीज़ से कम पर चलते हुए उनकी तबीयत बिगड़ जाती है। पहले सड़क पर जीते हुए अपने बिना दीवारों के घर पर छत डालने का असंभव सपना वह देखते थे, आज अपने भव्य प्रसाद में उन्हें घुटन महसूस होती है। चांद पर घर बसाने के बारे में वह गम्भीरता से सोच रहे हैं। लेकिन मखमली बिस्तर पर ऊंधती नींद में यह व्यवधान कैसे आ गया। केवल भाषण से, जुमलों से बात चलाने, काम होते जाने का एहसास देने की आदत हो गई है उन्हें। अब कुर्सी से उतर पैरों को जुम्विश देनी होगी। वोटरों को कृपानिधान कह कर उनकी भूली गलियों का चेहरा पहचानने की मेहनत करनी होगी, ‘भय्या’ कह कर इस तंग उतरी चौखटों को फिर अपना मान माथे से लगाना होगा। चार दिन की चांदनी जो अब मतदान दिवस तक यहां रचती है, उन्हें अपने स्वप्न जीवी शिलान्यासों से अलंकृत करना होगा।
लेकिन इस बार इस वोटबटोर अभियान में रंग कुछ अलग हो गया। अब चुनाव दिल से दिल को आवाज़ दे कर लड़े नहीं जाते, बाकायदा इनके विशेषज्ञ मैदान में उतर आये हैं। नेताओं को मार्ग-दर्शन मिला। रवामाती मार्गदर्शन तो यही था कि वोटरों को चांद-सितारे आसमान से उतार कर तोहफे के रूप में भेंट कर दो, लेकिन इस बार भेंट करने चले तो जवाब मिला, ‘मैंने चांद और सितारों की तमन्ना की थी मुझे रातों की स्याही के सिवा कुछ न मिला।’ ऩफरत और अलगाव की दीवारें खड़ी करके दादियों और नानियों के कवच कुण्डल के साथ वे धरना लगा कर बैठ गये, तो चाहे लोगों के चलने का रास्ता रुक जाये, नहीं रुकता तो सुरक्षा के तर्क के साथ प्रशासन उसे बंद कर दे। समस्या को सुलझने दो, परेशान लोग दो ध्रुवों में बंट कर वोट कर देंगे। लेकिन लोग अब इन बातों से आलोड़ित नहीं होते। सीधा रास्ता पकड़ने से पहले ज़रूरी है ज़िन्दगी को जीना, पेट को भरना, खाली हाथों को काम देना। भुगतान के बोझ से चरमराते अपने बजट के नख शिख को संवारना। इसलिए इस उलझे मामले पर सफाई से पहले जरूरी लगा, पेट में दो रोटी का जुगाड़। सही बात थी। यह मांग तो बहुत पहले हो जानी चाहिये थी कि रोटी-रोज़ी दे न सके तो वह सरकार निकम्मी है, जो सरकार निकम्मी है वह सरकार बदलनी है। लेकिन इससे पहले कि यह आत्म ज्ञान शिद्धत से वोट देने वालों में उभरता, चुनाव सिद्धहस्त मार्गदर्शकों ने स्वयं एक नया नारा दे दिया, ‘वोट देना है तो हमारा काम देख कर दो, उम्मीदवारों की चिकनी चुपड़ी बातें सुन कर नहीं।’ अब काम तो भई काम होता है। चाहे हज़ारों यूनिट बिजली के बिलों में 200 यूनिट बिजली की माफ करो। स्कूलों के द्वारों खुलने और बच्चों के पहाड़े रटने की आवाज़ पैदा कर दो। महंगी दवा-दारू के माहौल में बंद सरकारी डिस्पैंसरियां खोल मुफ्त दवायें बांटने का शुबहा पैदा कर दो। नारी शक्ति ज़िन्दाबाद कह कर उन्हें बेटिकट बस यात्रा की इजाज़त दे दो।
भई, यह भी तो एक काम है। स्लेट खाली थी, उस पर चार अंक लिखे नज़र आने लगे। नारों की नुहार बदली। अब ज़िन्दाबाद, मुर्दाबाद के नारों की जगह ‘हींग लगे न फटकड़ी रंग भी चोखा आये’। विरोधी उम्मीदवारों ने लाख कहा, आप तो सड़क पर चलते लोगों को मुफ्तखोर बना रहे हैं। हाथों को नई मेहनत का संदेश देने की बजाय उन्हें राहत मांगने का संदेश दे रहे हैं, लेकिन साब कौन सुनता है? लोगों को सरकार के घर से रियासत की उम्मीद हो गई, तो उन्हें लगा यह तो बहुत बड़ा काम हो गया। भर-भर वोटों के लिए रियायतों की खैरात बांटने वाले नेता लोग केवल उस इलाके में नहीं, पूरे देश में लंगर लगौटे कसने लगे। लो काम की परिभाषा फिर बदल गई। काम होते-होते, रियायतों के भंवरजाल में उलझ गया। लोगों के लिए राहत देने के अम्बार खड़े करने के वायदों की बारात निकलने लगी। जिन्हें इस चुनाव में हारने की आशंका थी, ने फिर सीना तान कर रियायत बांटने को अपना नया काम बताने लगे। देश में नई कार्य संस्कृति पैदा हो गई है, सत्ता के दलालों ने सबसे कहा।