क्या दिल्ली दंगों के पीछे सुनियोजित साज़िश है ?

उधर गुजरात में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के स्वागत में लगे हुए थे और ट्रम्प भारत की बढ़ाई करते हुए कह रहे थे कि यह बहुत ही सुरक्षित देश है और यहां के लोग बहुत ही शानदार होते हैं, ठीक उसी समय दिल्ली में दंगा भड़क रहा था। आगजनी हो रही थी। पत्थरबाजी ही नहीं, गोलीबारी तक हो रही थी। और वह सब पुलिस के सामने ही हो रहा था। पुलिस आधे अधूरे मन से अपना फर्ज निभा रही थी। शायद वह अपना फर्ज निभा भी नहीं रही थी, बल्कि निभाने का नाटक कर रही थी। ऐसे विडियो देखे गए हैं, जिनमें पुलिस के पास के ही लोग पत्थरबाजी कर रहे थे और पुलिस खड़ी तमाशा देख रही थी। ट्रम्प की भारत यात्रा बहुत पहले ही तय हो गई थी। सीएए के खिलाफ  देश भर में विरोध प्रदर्शन भी पहले से ही हो रहा था। जाहिर है, यह अनुमान लगाया जा सकता था कि उस यात्रा के दौरान देश में कहीं न कहीं गड़बड़ी हो सकती है और यात्रा को विफल करने की कोशिश की जा सकती है। मीडिया रिपोर्ट्स की मानें, तो यह खुफिया जानकारी भी पुलिस को थी कि दिल्ली में कुछ गड़बड़ी हो सकती है। दिल्ली का शाहीन बाग सीएए विरोधी आंदोलन का प्रतीक बना हुआ है, हालांकि यहां का आंदोलन पूरी तरह से शांतिपूर्ण रहा है। एक दो बार वहां आंदोलन विरोधियों ने ही हिंसा फैलाने की कोशिश की, लेकिन आंदोलनकारियों के संयम के कारण हिंसा फैलाने के वे प्रयास विफल हो गए थे।
लेकिन फिर भी पुलिस के पास यह खुफिया जानकारी थी कि कुछ गड़बड़ हो सकती है। सवाल उठता है कि पुलिस ने उसे रोकने के लिए कुछ क्यों नहीं किया? सवाल पुलिस की विफलता का ही नहीं है, बल्कि राजनीतिक नेतृत्व भी विफल रहा है। शाहीन बाग जैसे आंदोलन भारत में कोई पहली बार नहीं हो रहे हैं। अनेक बार इस तरह के आंदोलन हुए हैं। भारत ने एक से एक बड़ा किसान आंदोलन देखा है, जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के किसान दिल्ली में परिवार सहित और चूल्हे बर्तन के साथ आ धमकते थे। उनकी संख्या कभी-कभी लाखों में भी होती थी। राजनीतिक नेतृत्व मामले को संभालता था और समझाबुझाकर, कभी उनकी बातें मानकर और कभी आश्वासन देकर उनके आंदोलन खत्म करवाता था, लेकिन सीएए के खिलाफ  हो रहे आंदोलन पर सरकार के राजनीतिक नेतृत्व का नजरिया बहुत ही गैर-जिम्मेदाराना रहा है। उन्होंने कभी भी आंदोलनकारियों के साथ बात करने की जरूरत ही नहीं समझी।
जब ट्रम्प को भारत आना था, तब तो सरकार के राजनीतिक नेतृत्व को कम से कम ज्यादा जिम्मेदारी से काम लेना चाहिए था। गृह मंत्री अमित शाह का रवैया सबसे ज्यादा आपत्तिजनक रहा। एक बार वे एक मीडिया हाउस के कार्यक्रम में बोल गए कि सीएए के मसले पर वे किसी से भी बात करने को तैयार हैं और वे मेरे कार्यालय से समय लेकर मेरे पास आ सकते हैं। शाहीन बाग के आंदोलनकारी गृहमंत्रालय से मिलने चल दिए। वह आंदोलन समाप्त कराने का अच्छा मौका था। अमित शाह को उनसे बात कर आंदोलन समाप्त करवा देना चाहिए था या उनसे बात करते वक्त पुलिस शाहीन बाग के धरनास्थल को अपने कब्जे में ले सकती थी, क्योंकि धरनास्थल से उठकर सारे लोग अमित शाह के घर की ओर जा रहे थे, लेकिन अमित शाह और दिल्ली पुलिस ने ऐसा नहीं किया और धरना जारी रहा। फिर रविवार को चन्द्रशेखर रावण ने भारत बंद का आह्वान किया और उसके कारण सीएए विरोधी सड़कों पर निकले और कहीं-कहीं सड़कों को जाम भी कर दिया। जाम को हटाने के लिए राजनीतिक स्तर पर कोई पहल नहीं हुई, उल्टे भारतीय जनता पार्टी के विधानसभा में पराजित उम्मीदवार कपिल मिश्र ने सीएस समर्थक मोर्चा निकालना शुरू कर दिया और रविवार को ही पुलिस को धमकी दे डाली कि सीएए विरोधियों के खिलाफ  कार्रवाई करो, नहीं तो फिर हमें दोष मत देना। जाहिर है, वह सीएए समर्थकों की ओर से दिल्ली पुलिस को दी गई धमकी थी। पुलिस को यह भी पता चल ही गया था कि अब विरोधियों के खिलाफ  समर्थक सक्रिय होने वाले हैं और वैसा होने पर दंगे की संभावना ही बनेगी, क्योंकि समर्थक विरोधियों पर हमला कर सकते हैं। हमले की ही यह धमकी कपिल मिश्र देकर गए थे और उन्होंने यह प्रेस कान्फ्रैंस करके नहीं दी थी, बल्कि दिल्ली पुलिस के एक उच्च अधिकारी को संबोधित करते हुए दी थी, जो उस समय वहीं उपस्थित थे। जाहिर है, रविवार को ही पुलिस को पता चल गया था कि दिल्ली में हिंसा कभी शुरू हो सकती है, क्योंकि सब कुछ उनके सामने था, लेकिन पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की। सीएए विरोधी तो सड़क पर थे ही। समर्थकों के आ जाने के बाद स्थिति विकराल होनी ही थी। धमकी मिलने के बाद पुलिस को कपिल मिश्र को गिरफ्तार करना चाहिए था, लेकिन वैसा नहीं किया गया। एक सच यह भी है कि सीएए के समर्थकों का नेतृत्व भाजपा के लोगों के हाथों में ही था। भाजपा का केन्द्रीय या प्रदेश नेतृत्व अपने कार्यकर्त्ताओं को समझा सकता था कि ट्रम्प की यात्रा के दौरान दोतरफा प्रदर्शन से हालात बिगड़ने पर देश की ही बदनामी होगी। इसलिए कम से कम भाजपा को तो कपिल मिश्रा जैसे अपने नेताओं पर लगाम लगानी चाहिए थी, लेकिन उन्होंने भी वैसा करना जरूरी नहीं समझा। और जो नहीं होना चाहिए था, वह हो गया। ट्रम्प के दिल्ली में रहते हुए ही दिल्ली जलने लगी। यह भारतीय राजनय को एक गहरा सदमा से कम नहीं। नरेन्द्र मोदी की छवि को भी बट्टा लगा है। भारत की प्रशंसा के जो पुल अहमदाबाद में ट्रम्प ने बांधे उन्हें भी दिल्ली की घटना ने खोखला साबित कर दिया। अब केन्द्र सरकार और सत्तारूढ़ भाजपा कह रही है कि दिल्ली में जो कुछ हुआ वह पूर्व नियोजित था, लेकिन घटनाएं जिस तरह से घटी और पुलिस ने जो बेरुखी दिखाई, उससे तो यही लगता है कि कहीं न कहीं सत्तारूढ़ पक्ष ही इसके लिए जिम्मेदार है। लेकिन सत्तापक्ष क्यों भारत की किरकिरी करवाना चाहेगा और नरेन्द्र मोदी की अंतर्राष्ट्रीय छवि को क्यों खराब करना चाहेगा? (संवाद)