" अफगानिस्तान समझौता " शंकाएं और सम्भावनाएं

अमरीका और तालिबान में शांति समझौता होना एक बहुत बड़ी तथा महत्त्वपूर्ण घटना है, जिसका केन्द्रीय एशिया तथा दक्षिण एशिया के देशों पर भी बड़ा असर पड़ेगा। कई दशक पूर्व जब 1979 में सोवियत यूनियन ने अफगानिस्तान में अपनी सेनाएं भेजी थी, उस समय से ही देश में बड़ी गड़बड़ के हालात चलते रहे हैं। 1980 के दशक में लाखों ही अफगान शरणार्थियों ने अमरीका और पाकिस्तान की सहायता से सोवियत सेनाओं के खिलाफ मोर्चा बनाया था। पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. ने अपने देश के मदरसों में उस समय पढ़ते अफगान छात्रों को सोवियत सेनाओं के खिलाफ संगठन बना कर उसका नाम ‘तालिबान’ रखा था। अमरीका के अलावा इसकी कई मुस्लिम देशों खास तौर पर सऊदी अरब ने आर्थिक तौर पर बड़ी सहायता की थी। अंतत: जेहादियों के इस संगठन ने 1995 में ईरान की सीमा के साथ लगते हैरात के क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया था। 1998 तक तालिबान ने अफगानिस्तान के 90 प्रतिशत हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया था। पांच वर्ष तक मुल्ला उमर के नेतृत्व में तालिबान ने अफगानिस्तान पर शासन किया था। उस समय न सिर्फ उसने दुनिया भर के कट्टर आतंकवादी संगठनों के साथ अपना सम्पर्क ही बनाया, अपितु देश पर भी कट्टर शरियत कानूनों को लागू किया गया। अपने दुश्मनों को खुलेआम फांसी पर लटकाया गया। लोगों के हाथ-पांव काटे गये। इस राज्य में खास तौर पर महिलाओं को जुल्म का शिकार होना पड़ा। उनको पिछली सदियों के जीवन की तर्ज पर चलाया गया। यहां तक कि लड़कियों के स्कूलों पर भी पाबंदी लगा दी गई। पाकिस्तान सहित तालिबान को सिर्फ तीन देशों ने ही मान्यता दी थी। ओसामा-बिन-लादेन के नेतृत्व वाले अलकायदा नामक संगठन ने अमरीका में विश्व व्यापार केन्द्र की जुड़वा इमारतों पर वर्ष 2001 में हमला किया था। ओसामा-बिन-लादेन ने अफगानिस्तान में शरण ली हुई थी। अमरीका की धमकियों के बावजूद मुल्ला उमर ने ओसामा को अपने देश से नहीं निकाला। जिस पर 7 अक्तूबर, 2001 को अमरीका ने अफगानिस्तान पर हमला कर दिया था। अमरीका ने तालिबान को खदेड़ कर अफगानिस्तान में अपनी मज़र्ी की सरकार कायम कर दी थी। तालिबान ने पाकिस्तान की सीमा के साथ-साथ ठिकाने बनाये रखे। उसको तेल से अमीर हुये कई देशों से पूरी आर्थिक सहायता मिलती रही। उन्होंने लगभग 19 वर्ष तक अफगानिस्तान पर अपने हमले जारी रखे और वहां बनी अफगान सरकारों को चैन नहीं लेने दिया। इस युद्ध में हज़ारों ही अमरीकी सैनिक मारे गये और इस लम्बे युद्ध में लाखों की संख्या में दोनों तरफ से अफगानी नागरिक, सैनिक और तालिबान लड़ाके भी मारे गये। लगभग 50 वर्ष पूर्व अमरीका ने वियतनाम में साइगोन सरकार की सहायता के लिए अपनी सेना भेजी थी। वहां लम्बे युद्ध में भी अमरीकी सैनिकों का बड़ा नुकसान हुआ था। अंतत: अमरीका को वहां से नमोशी भरी हालत से निकलना पड़ा था। इस युद्ध में भी लाखों ही लोग मारे गये थे। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पद सम्भालते ही अफगानिस्तान से अमरीकी सेना को निकालने का ऐलान किया था। अब जब कि वहां पुन: राष्ट्रपति के चुनाव निकट हैं, तो डोनाल्ड ट्रम्प प्रशासन ने तालिबान के साथ कुछ शर्तों सहित समझौता किया है, जिसमें तालिबान को अल-कायदा के साथ-साथ अन्य आतंकवादी संगठनों से संबंध तोड़ने पड़ेंगे। अपने  छेड़े युद्ध को बंद करना पड़ेगा। अफगानिस्तान की सरकार के साथ बातचीत शुरू करनी पड़ेगी। इन शर्तों की तालिबान द्वारा पूर्ति करने पर 14 महीनों के अर्से में अमरीका अपनी सेनाएं वापिस बुला लेगा। 18 वर्ष चले इस भीषण युद्ध के संबंध में फैसला होना किसी भी तरह आसान नहीं है। इसमें अफगानिस्तान की सरकार को शामिल नहीं किया गया। समझौते के दूसरे ही दिन अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने तालिबान कैदियों को रिहा करने की शर्त को मानने से इन्कार कर दिया, क्योंकि 10 मार्च को ओसलो में संबंधित गुटों में अगली बातचीत शुरू होने से पहले यह फैसला किया गया था कि अफगानिस्तान सरकार एक हज़ार तालिबान कैदियों को छोड़ने का ऐलान करेगी। जबकि राष्ट्रपति अशरफ गनी ने कहा है कि अमरीका को इस तरह का फैसला लेने का कोई अधिकार नहीं है। क्योंकि कैदियों को छोड़ने का फैसला अफगानिस्तान सरकार ने लेना है और हम किसी भी तरह की अगली बातचीत शुरू होने से पहले कैदियों को रिहा करने के लिए तैयार हैं। अफगानिस्तान के अधिकतर लोग चाहे युद्ध खत्म होने की उम्मीद तो कर रहे हैं, परन्तु वह तालिबान के कड़े शरियत कानूनों के खिलाफ हैं। खास तौर पर अफगानी महिलाएं इस ़खबर से परेशान हैं। तालिबान के भारत के साथ संबंध तनावपूर्ण रहे हैं। क्योंकि इनका जन्म ही पाकिस्तान में हुआ था। तालिबान ने हमेशा पाकिस्तान का ही पक्ष लिया है। भारत ने गत 20 वर्षों से अफगानिस्तान की सहायता करने के लिए अरबों रुपये खर्च किए हैं। वहां के स्कूल, सड़कों, अस्पताल, हवाई अड्डों और अन्य प्राथमिक ढांचे के निर्माण के लिए आज भी हज़ारों ही भारतीय वहां कार्य कर रहे हैं। गत समय के दौरान गवादर बंदरगाह से सड़क बना कर अफगानिस्तान के साथ व्यापार करने की योजना पर भी भारत सरकार ने अब तक अरबों रुपये खर्च किए हैं। यदि तालिबान का अफगानिस्तान के प्रशासन पर पुन: कब्ज़ा हो जाता है, तो भारत को भी उस देश के प्रति स्थिति के अनुसार अपनी नीति को तय करना पड़ेगा। गत दो दशकों के बेहद कड़े संघर्ष के बाद तालिबान में कितना बदलाव आया हो सकता है इसको भी दुनिया भर में ध्यान से देखा जाएगा। अमरीकी राष्ट्रपति के अनुसार शर्तों के अनुसार तालिबान में बड़ा बदलाव आने की सम्भावना है। परन्तु यह समझौता इस क्षेत्र में शांति लाने में सफल हो सकेगा अथवा नहीं, इसके बारे में अभी कुछ कहा जा सकना बेहद मुश्किल होगा।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द