सीएए पर संयुक्त राष्ट्र का दखल कतई मंज़ूर नहीं

नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) भारत के संविधान के अनुरूप है या नहीं, यह बात फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के समक्ष विचाराधीन है। लेकिन यूनाइटेड नेशन हाई कमिश्नर फॉर ह्यूमन राइट्स (यूएनएचसीएचआर) इस मामले में अदालत मित्र के रूप में हस्तक्षेप करना चाहता है। भारत के न्यायिक इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था ने इस प्रकार का आग्रह किया है। यूएनएचसीएचआर अपनी हस्तक्षेप याचिका देब मुखर्जी की याचिका में शामिल करना चाहता है। बांग्लादेश में भारत के उच्च आयुक्त रहे मुखर्जी ने सीएए को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी हुई है, जिसे वह संविधान के विरुद्ध समझते हैं। हालांकि इस रिपोर्ट के लिखे जाने तक सुप्रीम कोर्ट के सूत्रों से यह पुष्टि नहीं हो सकी कि यूएनएचसीएचआर की हस्तक्षेप याचिका वास्तव में दाखिल हुई या नहीं, लेकिन यूएनएचसीएचआर ने कहा है कि ‘प्रशंसनीय’ कानून होने के बावजूद सीएए पीड़ित मुस्लिम समुदायों के प्रति भेदभावपूर्ण प्रतीत होता है। सीएए पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश के छह अल्पसंख्यक समुदायों- हिन्दू, सिख, ईसाई, पारसी, जैन व बौद्ध को भारतीय नागरिकता ऑफर करता है, अगर वह अपने देश में धार्मिक भेदभाव का शिकार हैं। सरकार का कहना है कि मुस्लिम चूंकि इन तीनों देशों में बहुसंख्या में हैं, इसलिए वह धार्मिक अल्पसंख्यकों की तरह उत्पीड़ित नहीं हैं। गौरतलब है कि अपने इस तर्क का बचाव करने के लिए सरकार ने अपने तीन प्रतिनिधियों- एमजे अकबर (पूर्व विदेश राज्य मंत्री), उमर अहमद इलियासी (अखिल भारतीय इमाम संगठन के प्रमुख) और अतिका अहमद फारूकी (मुंबई स्थित फिल्म व मनोरंजन रिपोर्टर)- को जिनेवा (यूएनएचसीएचआर) भेजा है। मुखर्जी व अन्य सीएए के आलोचकों का तर्क है कि भारतीय संविधान धर्म व स्थान के आधार पर नागरिकता प्रदान नहीं करता है। पाकिस्तान में अहमदिया/कादियानी, शिया, हजारा, बलोच आदि, जो सभी मुस्लिम समुदाय हैं, भी धार्मिक उत्पीड़न व भेदभाव का शिकार हैं, लेकिन सीएए में उनका कोई संज्ञान नहीं लिया गया है। इसी प्रकार श्रीलंका के पीड़ित हिन्दू तमिलों व म्यांमार के रोहिंग्या को अनदेखा कर दिया गया है। ध्यान रहे कि फिलहाल तमिलनाडु में श्रीलंका के तमिलों को दोहरी नागरिकता प्रदान करने के मुद्दे पर जबरदस्त बहस व राजनीतिक विवाद है। बहरहाल, यूएनएचसीएचआर मिशेल बेचलेट जेरिया ने कहा है, ‘सीएए अनियमित स्थिति में हजारों अप्रवासियों को लाभ पहुंचा सकता है, जिसमें शरणार्थी भी शामिल हैं, जिनको अन्यथा अपने मूल देशों में उत्पीड़न से सुरक्षा प्राप्त करने में कठिनाई होती है। ऐसे व्यक्तियों को नागरिकता प्रदान करना प्रशंसनीय उद्देश्य है। ... (लेकिन) सीएए का संकीर्ण स्कोप, जो केवल धार्मिक आधार पर सुरक्षा प्रदान करता है और विशिष्ट देशज-धार्मिक गुटों तक सीमित है, शायद अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के तहत विस्तृत रिफालमेंट (शरणार्थी को उसके मूल देश भेजने की प्रक्रिया) प्रतिबंध की रोशनी में वस्तुगत व उचित नहीं है।’ सीएए को मानवाधिकार कानून के अनुरूप करने के लिए एनएचसीएचआर अदालत मित्र के रूप में काम करना चाहती हैं। यहां यह बताना आवश्यक है कि मानवाधिकार संबंधी नॉन-रिफालमेंट के बुनियादी सिद्धांत (कि शरणार्थियों को जबरन उनके गृह देश नहीं भेजा जायेगा) को मानने का भारत का अंतर्राष्ट्रीय वायदा है। जब भारत ने रोहिंग्या मुस्लिमों को वापस म्यांमार भेजने का निर्णय लिया था तो उसे चुनौती देने के लिए एक्टिविस्ट वकीलों ने इसी वायदे का उल्लेख किया था कि रोहिंग्या का अपने देश में धार्मिक उत्पीड़न हो रहा है, इसलिए उन्हें वापस नहीं भेजा जा सकता। इसके विपरीत विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार का कहना है, ‘हम इस बारे में एकदम स्पष्ट हैं कि सीएए संवैधानिक दृष्टि से वैध है और हमारे सभी संवैधानिक मूल्यों की जरूरतों के अनुरूप है। भारत के विभाजन की त्रासदी से उत्पन्न मानवाधिकार मुद्दों के संदर्भ में जो हमारे लम्बे समय से विलम्बित राष्ट्रीय वायदे हैं उनको प्रतिविम्बित करता है।’ संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी ने पहले भी अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय न्याय क्षेत्रों में अदालत मित्र की भूमिका निभायी है, जैसे यूरोपीयन कोर्ट ऑफ ह्यूमन राइट्स, इंटर-अमेरिकन कोर्ट ऑफ  ह्यूमन राइट्स, इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट, अमरीका का सुप्रीम कोर्ट और एशिया व लातिन अमरीका के अनेक देशों की अपील अदालतों में। लेकिन भारत के न्यायिक इतिहास में हस्तक्षेप के प्रयास का यह पहला अवसर है। ऐसा करते में यूएनएचसीएचआर ने स्पष्ट किया है कि वह अपने राजनयिक प्रिविलेज व इम्युनिटी का त्याग नहीं करेगा। इसका अर्थ यह है कि वह सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक क्षेत्र के अधीन नहीं आयेगा और अगर उनके विरुद्ध कोई विपरीत आदेश पारित होता है तो वह उसकी जवाबदेह नहीं होगा। सीएए में उत्पीड़ित अल्प-संख्यकों को त्वरित नागरिकता देने का प्रावधान है। इसका तथ्यपरक आधार नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) के स्टेटमेंट ऑफ ऑब्जेक्ट्स एंड रीजंस में दिया गया और इसका समर्थन अफगानिस्तान, बांग्लादेश व पाकिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यकों की स्थिति से संबंधित संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार मैकेनिज्म में भी है, लेकिन उसमें शिया, अहमदिया आदि समुदायों का भी उल्लेख है, जिसे सीएए में अनदेखा कर दिया गया है। यूएनएचसीएचआर द्वारा हस्तक्षेप आग्रह का यह बड़ा कारण है। लेकिन क्या यूएनएचसीएचआर को अदालत मित्र बनने दिया जाये?सरकार ने 3 मार्च को लोकसभा में बताया कि पांच विदेशियों को देश छोड़ने के लिए कहा गया क्योंकि उन्होंने सीएए विरोधी आंदोलनों में हिस्सा लेकर वीजा नियमों का उल्लंघन किया था। इसका अर्थ यह है कि सरकार सीएए मामले में कोई ‘विदेशी हस्तक्षेप’ नहीं चाहती है। लेकिन इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि सीएए ‘ग्लोबल मुद्दा’ बना हुआ है, तभी सरकार ने इस पर स्पष्टीकरण के लिए अपने तीन प्रतिनिधियों को जिनेवा भेजा। अब यूएनएचसीएचआर इस विषय पर अदालत मित्र के रूप में हस्तक्षेप करना चाहती हैं। सुप्रीम कोर्ट पहले भी अपने तौरपर बहुत से मामलों में अदालत मित्र नियुक्त कर चुका है। यहां अदालत मित्र बनने का आग्रह है, जिसे सुप्रीम कोर्ट को तय करना है कि वह स्वीकार करे या ठुकराये। लेकिन सरकार को अदालत में इस आग्रह का विरोध करना चाहिए क्योंकि सीएए की संवैधानिक वैधता तय करने के लिए सुप्रीम कोर्ट को किसी ‘सहारे’ की जरूरत प्रतीत नहीं होती, अगर आवश्यकता होती तो वह स्वयं कोई अदालत मित्र नियुक्त करता।  

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