कहीं न्यायपालिका ही न कर डाले संविधान के सपने का शिकार

जस्टिस रंजन गोगोई अब मी लार्ड की जगह माननीय हो गए। वह अब तक होने वाले अकेले माननीय नहीं हैं। उनसे पहले पी. सदाशिवम लाटसाहब हुए थे। रंगनाथ मिश्रा तो बकायदा कांग्रेस में शामिल होकर पंजा लड़ाते थे। बहरुल इस्लाम का मामला तो और भी बहुत ही गजब का है, वे पहले पहले राज्यसभा मेें कांग्रेस सांसद थे फिर नगालैंड और असम में हाईकोर्ट जज बने। देश के अन्य राज्यों में तमाम हाईकोर्ट के जज रिटायरमेंट के बाद सरकारों की बीन बजाते रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट के जज भी केन्द्र सरकार के आयोगों, कमेटियों में शोभा बढ़ाते रहते हैं। ...तो क्या माना जाए कि भारत की न्यायपालिका निष्पक्ष नहीं, एक तरह से प्रतिबद्ध वर्ग का प्रतिनिधित्व करती आयी है ? रंजन गोगोई की राज्य सभा की सदस्यता पर आलोचना के तीर मौजूदा मोदी सरकार पर चलना स्वाभाविक है,लेकिन सवाल तात्कालिक आलोचना भर से बड़ा है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में न्यायपालिका की धवलता और शुचिता उसका प्राणतत्व निर्धारित किया गया था। संविधान निर्मात्री सभा में जिस उच्च नैतिक आचरण की अपेक्षा की गई थी, वह समय के साथ दरकती जा रही है। यह सही है कि जज भी उसी समाज से आते हैं जो आज टूटती मर्यादाओं और तार-तार होते जनविश्वास के तिमिर में धंस चुका है। सरकार के तीनों तत्व बुरी तरह चारित्रिक पतन के दौर से गुजर रहे हैं। गहराई से देखा जाए तो रंजन गोगोई का राज्यसभा जाना समाज के इसी पराभव की निरंतरता का एक बड़ा पड़ाव है। लेकिन क्या इसके लिए केवल कार्यपालिका को दोषी ठहराया जाना चाहिये ? बुनियादी सवाल तो अब उस व्यवस्था पर खड़े हो गए हैं जिसे न्यायपालिका ने खुद अतिक्रमित कर लिया है। क्या भारत के लोकतंत्रीय ढांचे में न्यायिकतंत्र  की औपनिवेशिकता के शमन का समय नहीं आ गया है? जिस तरह से जज गण अपना चोला उतारते रहे हैं, वह भारतीय लोकतंत्र के बुनियादी तत्व को बुरी तरह से हिला रहा है। सवाल यह उठाया ही जाना चाहिये कि जब प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति से लेकर गांव के प्रधान और पंच तक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत अपने दायित्व ग्रहण करते हैं तो मुल्क को अखबारों और टीवी  से क्यों पता चलता है कि फलां साहब कल से हमारे मी लार्ड हो गए हैं। 135 करोड़ लोगों के न्यायाधिपति गोपनीय फाइलों से कैसे पैदा हो जाते हैं  और फिर यही जज भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था के व्याख्याकार बन जाते हैं ?  संविधान के आलोक में हुक्मरानों और जनता को फैसले सुनाते हैं। उस संविधान की व्याख्या कर जिसके किसी पन्ने पर इनकी नियुक्ति, प्रमोशन, ट्रांसफर का प्रावधान नहीं जो आज प्रचलन में है। तथ्य यह है कि भारत आज न्यायिक सक्रियतावाद नहीं, न्यायिक प्रतिबद्धतावाद के खतरनाक दौर से गुजर रहा है। वरन क्या वजह है कि 70 साल बाद भी न्यायपालिका में नियुक्ति की कोई संवैधानिक व्यवस्था ईजाद नहीं हो सकी है। जज का बेटा जज बनेगा। जज ही मानव अधिकार आयोग में अध्यक्ष होंगे। सूचना आयुक्त होंगे। ट्रिब्यूनल में बैठेंगे। लोकायुक्त, राज्यपाल और लोकपाल होंगे।सुविधा संतुलन का यह घिनौना चरित्र आज जम्हूरियत के लिये खतरनाक संकेत है। जिस कोलेजियम सिस्टम ने भारत की न्यायिक निष्पक्षता को संदिग्ध बनाया है उस पर पुनर्विचार का समय आ गया है। हकीकत यह है कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट न केवल भयंकर भाई-भतीजावाद में फंसे हैं बल्कि कदाचरण की सीमाएं भी बहुत पहले लांघ चुके हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जज रंगनाथ पांडेय ने सेवा में रहते हुए प्रधानमंत्री मोदी को इस कलुशित कथा से अवगत करने का प्रयास किया था। जस्टिस पांडे निचली अदालतों से प्रमोशन पाकर हाईकोर्ट पहुंचे थे इसलिए उन्हें गुंडई अंदाज में वहां धमकाया गया, उनकी सुरक्षा वापिस ले ली गई। पटना उच्च न्यायालय के एक मौजूदा जज ने भी कुछ ऐसा ही साहस किया तो उनसे सभी  सुनवाई केस छीन लिए गए। बाद में ये जज महोदय झुक गए और वापिस उसी सिस्टम का अंग है। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के एक जज रिटायरमेंट से दो दिन पहले इस्तीफा देते हैं और उसी दिन उप लोकायुक्त की शपथ लेते हैं। इंदौर हाईकोर्ट के एक जज प्रदेश के बड़े कांग्रेस नेता के कारोबारी विवाद निपटाते थे। सुप्रीम कोर्ट में एक मौजूदा जज के रिश्तेदारों की मध्य प्रदेश में तूती बोलती है। एक और जज मध्य प्रदेश से देश के चीफ  जस्टिस बने उनके आधा दर्जन से अधिक रिश्तेदार आज जज बने हुए हैं। घोटालों,नियुक्तियों पर नेताओं को जेल भेजने वाले जज असल में खुद बड़े घोटालेबाज हैं।  अफसरशाही और नेताओं के कारनामे तो मीडिया और जनता के बीच आ जाते हैं, लेकिन मी लार्ड गणों की स्याह  कहानियां न्यायिक सम्मान और ऊंची ठसक के चलते कभी सामने नहीं आती हैं। मप्र  हाईकोर्ट के एक जज पर एडिशनल जिला जज ने यौन शोषण का आरोप लगाया, जजों की कमेटी ने ही जांच कर इन महाशय को क्लीन चिट दे दी । जस्टिस गोगोई पर लगे यौन शोषण के आरोपों  और निपटान की कहानी तो बेहद ही शर्मनाक है। जस्टिस कर्णन के आरोपों और उनके साथ किये गए व्यवहार को देश भुला चुका है।सवाल फिर यही है कि  भारत में न्यायिक शुद्धिकरण की पहल कहां से होगी?क्या कदाचारी और अयोग्य जज भारत के संविधान के लिए संकट नहीं बन रहे हैं? मामला केवल गोगोई का नहीं बल्कि पूरे तंत्र की विश्वनीयता, क्षमता और निष्पक्षता का है। निर्भया केस में दरिंदों ने न्याय व्यवस्था का मजाक बनाकर रख दिया था। शाहीनबाग की कोख से उपजे दिल्ली के बदनुमा दंगों में न्यायपालिका का नकारापन स्वयंसिद्ध हो चुका है। आज हमारी न्यायिक व्यवस्था खुद ही अंतर्विरोधों से घिरी है। उसने अतिक्रमण कर कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में जो हस्तक्षेप की प्रक्रिया संस्थित की वह  विशुद्ध रूप से सुविधाजनक प्रतिबिंबित होती है।संवैधानिक सर्वोच्चता की रक्षा करने में भी यह निरंतर असफल साबित हुई है। असम की एनआरसी हो या मौजूदा नागरिकता संशोधन कानून सर्वोच्च अदालत हर जगह असफल हुआ। लिहाजा अब समय आ गया है कि गोगोई की आलोचना से फुर्सत होकर भारत के सभी विपक्षी दल एक जबाबदेह, निष्पक्ष और क्षमतावान न्यायपालिका की पुन: स्थापना के लिए समेकित होकर पहल करें। ऐसी न्यायपालिका जो संविधान में अपेक्षित उच्च  और अप्रतिबद्ध चरित्र पर अबलंबित हो। जिसमें लोकतांत्रिक प्रतिबिंब, हो जो 135 करोड़ गणों की भावनाओं उनके भरोसे को  प्रतिध्वनित करती हो।

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