कोरोना की दहशत ने दिहाड़ीदार मज़दूरों के चूल्हे किए ठंडे

कुप कलां, 21 मार्च (अ:स): करोना वायरस की दहशत को लेकर हर क्षेत्र में मंदी ने पैर पसार लिए है इस दहशत ने कई व्यापारियों को बर्बाद करने की कगार पर खड़ा कर दिया है अगर चांदी बन रही है तो सिर्फ उन मुनाफाखोरों की जिनके द्वारा इंसानी रिश्तों की परवाह किए बिना रोजमरां की मनुष्य उपयोग में आने वाली वस्तुओं के भाव को बढ़ाकर बेचता जा रहा है। यह भी सच है कि पैसेदार लोगों के तकरीबन बड़ी संख्या में रोजमरा के सामान को अपने घरों में जमा करके आने वाले भविष्य की कगार को निहारते अपने जीवन की रूप रेखा को तय कर लिया है। आज इस गंभीर संकट से सबसे ज्यादा जूंझ रहे दिहाड़ीदार मजदूर वर्ग जिसके चुल्हे की आग और दो समय का आटा उससे की सख्त मेहनत मुशकत के पसीने उपजता है और शाम को घर जाते ही मासूम बच्चे उसके साईकिल से लटकते झोले की तनीयों को बड़े प्यार से खोलते है। करोना की दहशत के चलते लेबर चौंक में खड़े बेवस मजदूर वर्ग के चेहरे पर छाई मायूसी इस बात की गवाह है कि कोरोना के डर ने प्रभावित तो चाहे कुल दुनियां को किया है पर समय के समय कमाकर खाने वाले भाईचारे की तो कमर तोड़ कर रख दी है। जिन्दगी की कबीलदारियों का भार ढोते-ढोते बुर्जुग हो चुके और शहर में राज मिस्त्री के साथ काम करते कई खेत मजदूरों ने बताया कि करोना तो जब मौत आएगी तब देखेंगे पर दो समय की रोटी से उनकी जिन्दगी अभी खत्म होती लग रही है, काम रूक चुके है, गाहकी लगभग समाप्त होने के किनारे पर पहुंच चुकी है अब तो सिर्फ सोचो और देखो और अमला किया जा रहा है। कई बुर्जुग मज़दूर आंखे भरकर बताते हैं कि नौजवानों के मुकाबले उनकी कदर अब बिल्कुल कम हो चुकी है। क्योंकि प्रचार ही इसका हो रहा है कि नामुराद बीमारी ज्यादातर बुर्जुगों को आकर लगती है इस लिए हमें काम से जवाब मिल रहा है। कुछ भी हो आज रोज की रोज कमाकर खाने वाले दिहाड़ीदारों और छोटे दुकानदारों के परिवार और बच्चे एक खौंफ भरे माहौल में गुजर रहे है, उनकी सोच की सूई फिर यहां आकर टिक जाती है कि उनके परिवार की रोटी और बीमारी की दवाई का क्या बनेगा, बाज़ारों में से उनको पैसो और राशन ऊधार मिलना बंद होने की कगार पर पहुंच चुका है इसलिए बहुत ग्रामीण मजदूरों द्वारा अब शहरों के लेबर चौंको की ओर जाने की बजाए गांवो के खेतों की ओर अपना मूंह कर लिया है।