" शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की 89वीं पुण्य तिथि पर विशेष " हवा में रहेगी मेरे ख़्याल की बिजली...

देश वासियों को ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ का क्रांतिकारी नारा दे, जंग-ए-आज़ादी में निर्णायक मोड़ देने वाले शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की आज 89वीं पुण्यतिथि है। आज ही के दिन यानी 23 मार्च, 1931 को ब्रिटिश हुकूमत ने सरकार के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंकने के इल्जाम में उन्हें फांसी की सजा सुनाई थी। सजा पर वे जरा से भी विचलित नहीं हुए और हंसते-हंसते फांसी के तख्ते पर चढ़ गए। महज साढ़े तेईस साल की छोटी-सी उम्र में शहादत के लिए फांसी का फंदा हंसकर चूमने वाले, क्रांतिकारी भगत सिंह की पैदाइश 28 सितम्बर 1907 को अविभाजित भारत के लायलपुर बंगा में हुई थी। शहीद-ए-आज़म भगत सिंह भारत ही नहीं, बल्कि समूचे भारतीय उप-महाद्वीप की सांझा विरासत का क्रांतिकारी प्रतीक हैं। भगत सिंह बचपन से ही क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने लगे थे। वे जिस परिवार में पैदा हुए, उसका माहौल ही कुछ ऐसा था कि उन्हें क्रांतिकारी बनना ही था। उनके दादा अर्जुन सिंह आर्य समाजी थे और दो चाचा स्वर्ण सिंह व अजीत सिंह स्वाधीनता संग्राम में अपना जीवन समर्पित कर चुके थे। यही नहीं उनके पिता किशन सिंह कांग्रेस पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता थे। यानी भगत सिंह के अंदर बचपन में जो संस्कार आए, उसमें उनके पूरे परिवार का बड़ा योगदान है। पारिवारिक संस्कारों के अलावा उनमें गदर पार्टी के क्रांतिकारी आंदोलन के प्रति गहरा आकर्षण था। खास तौर पर शहीद करतार सिंह सराभा उनके आदर्श थे। जिनकी फोटो वे हमेशा अपनी जेब में रखते थे। भगत सिंह को बचपन से पढ़ने-लिखने का जुनूनी शौक था। साल 1924 में जब उन्होंने लिखना शुरू किया, तब उनकी उम्र महज सतरह साल थी। ‘प्रताप’ (कानपुर), ‘महरारथी’ (दिल्ली), ‘चांद’ (इलाहाबाद), ‘वीर अर्जुन’ (दिल्ली) आदि समाचार पत्रों और पंजाबी पत्रिका ‘किरती’ में उनके कई लेख प्रकाशित हुए। हिंदी, पंजाबी, उर्दू व अंग्रेजी चारों भाषाओं पर उनका समान अधिकार था। छोटी-सी ही उम्र में उन्होंने खूब पढ़ा। दुनिया को करीब से देखा, समझा और व्यवस्था बदलने के लिए जी भरकर कोशिशें कीं। अंग्रेज सरकार के ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ व ‘ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल’ के खिलाफ  उन्होंने 8 अप्रैल, 1929 को केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंककर, अपनी गिरफ्तारी दी। बम फेंकने का मकसद किसी को घायल करना या मारना नहीं था, बल्कि बहरी अंग्रेज हुकूमत के कान खोलना था। जेल जीवन के अपने दो वर्षों में भगत सिंह ने खूब अध्ययन, मनन, चिंतन व लेखन किया। जेल के अंदर से ही उन्होंने क्रांतिकारी आंदोलन को बचाए रखा और उसे विचारधारात्मक स्पष्टता प्रदान की। भगत सिंह सिर्फ  जोशीले नौजवान नहीं थे, जो कि जोश में आकर अपने वतन पर मर मिटे थे। उनके दिल में देश भक्ति के जज्बे के साथ एक सपना था। भावी भारत की एक तस्वीर थी। जिसे साकार करने के लिए ही उन्होंने अपना सर्वस्व: देश पर न्यौछावर कर दिया। वे सिर्फ  क्रांतिकारी ही नहीं बल्कि युगदृष्टा, स्वप्नदर्शी, विचारक भी थे। वैज्ञानिक, ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सामाजिक समस्याओं के विश्लेषण की उनमें अद्भुत क्षमता थी। भगत सिंह ने कहा था,‘मेहनतकश जनता को आने वाली आज़ादी में कोई राहत नहीं मिलेगी।’ उनकी भविष्यवाणी अक्षरश: सच साबित हुई। आज देश में प्रतिक्रियावादी शक्तियों की ताकत बढ़ी है। पूंजीवाद, बाज़ारवाद, साम्राज्यवाद के नापाक गठबंधन ने सारी दुनिया को अपने आगोश में ले लिया है। अपने ही देश में हम आज दुश्कर परिस्थितियाें में जी रहे हैं। चहुं ओर समस्याएं ही समस्याएं हैं। समाधान नज़र नहीं आ रहा है। ऐसे माहौल में भगत सिंह के फांसी पर चढ़ने से कुछ समय पूर्व के विचार याद आते हैं,‘जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है, तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वह हिचकिचाते हैं, इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी भावना पैदा करने की जरूरत होती है। अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा जाता है। लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियां जनता को गलत रास्ते में ले जाने में सफल हो जाती हैं। इससे इन्सान की प्रगति रूक जाती है और उसमें गतिरोध आ जाता है। इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह ज़रूरी है कि क्रांति की भावना ताज़ा की जाए। ताकि इंसानियत की रूह में एक हरकत पैदा हो।’ अफसोस, आज़ादी मिलने के बाद नई पीढ़ी में क्रांति की वह भावना उतरोत्तर कम होती गई। जिसके परिणाम स्वरूप आज हमें कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। स्वतंत्र भारत में बढ़ते साम्प्रदायिक रूझान और प्रतिक्रियावादी शक्तियों के उभार ने उनकी चिन्ताओं को सही साबित किया। देश में बढ़ती साम्प्रदायिककता और जातिवाद से लड़ने के लिए आज भी हमें भगत सिंह के विचार कारगर लगते हैं, ‘साम्प्रदायिक वहम और पूर्वाग्रह हमारी प्रगति के रास्ते में बड़ी रूकावट हैं। हमें इन्हें दूर फैंक देना चाहिए।’भगत सिंह की सारी जिंदगानी पर यदि हम गौर करें, तो उनकी ज़िन्दगी के आखिरी चार साल क्रांतिकारिता के थे। इन चार सालों में भी, उन्होंने अपने दो साल जेल में बिताये। लेकिन इन चार सालों में उन्होंने एक सदी का सफर तय किया। क्रांति की नई परिभाषा दी। अंग्रेजी हुकूमत, नौजवानों में भगत सिंह की बढ़ती लोकप्रियता और क्रांतिकारी छवि से परेशान थी। लिहाजा अवाम में बदनाम करने के लिए भगत सिंह को आतंकवादी तक साबित करने की कोशिश की गई। मगर क्रांति के बारे में खुद, भगत सिंह के विचार कुछ और थे। वे कहते थे,‘क्रांति के लिए खूनी संघर्ष अनिवार्य नहीं है और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा को कोई स्थान है। वह बम और पिस्तौल की संस्कृति नहीं है। क्रांति से हमारा अभिप्राय यह है कि वर्तमान व्यवस्था जो खुले तौर पर अन्याय पर टिकी हुई है, बदलनी चाहिए।’ भगत सिंह आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके विचार हमें नई क्रांति की राह दिखलाते हैं। जिंदगी के जानिब भगत सिंह की सोच हमेशा सकारात्मक रही। खुद उन्हीं के अल्फाजों में,‘‘हवा में रहेगी मेरे ख़्याल की बिजली, ये मुश्ते खाक है फानी रहे ना रहे।’’

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