असर तो हुआ है नरेन्द्र मोदी की अपीलों से !

लोकतंत्र की पहली शर्त है नागरिक अनुशासन और नेतृत्व के प्रति निष्ठा। संकट या संघर्ष काल में इन दोनों तत्वों की परीक्षा होती है। कोरोना के वैश्विक संकट से दुनिया के देश अपने अपने स्तर से मुकाबिल हैं। भारत अपनी नागरिक क्षमता और सीमित संसाधनों के बल पर इस महामारी को मात देने में लगा है। 5 अप्रैल को देश ने प्रधानमंत्री मोदी की अपील पर दीप जलाकर अपने नेता के प्रति निष्ठा का प्रदर्शन किया। इससे पहले 22 मार्च को थाली,घंटी पीटकर भी ऐसी एकता-मूलक अपील को अनुपालित किया गया था। इसमें कोई दो राय नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी अपने समकालीन नेताओं में सर्वाधिक लोकप्रिय है, लेकिन  नागरिक शास्त्र के पैमाने पर भी इस कोरोना संकट और नागरिक अनुशासन को परखे जाने की आवश्यकता है। यह संयोग ही है कि दीप जलाने की अगली सुबह एक ऐतिहासिक दिन की याद दिलाती है, जो पूरी तरह भारत के नागरिक अनुशासन से जुड़ी है। 6 अप्रैल को गांधीजी की दांडी यात्रा का समापन हुआ था। 12 मार्च को सिर्फ 12 लोगों के साथ शुरू हुई इस यात्रा में अंतिम पड़ाव पर 56 हजार पुरुष और 38 हजार महिलाओं का ऐतिहासिक समागम था। इसे उस समय के सर्वाधिक विशाल और अनुशासित सत्याग्रह के तौरपर याद किया जाता है। गोरी हुकूमत ने पुलिस और प्रशासन के बल पर इस यात्रा को बिगाड़ने की पूरी कोशिशें की थीं, लेकिन गांधी जी के आग्रह पर यह यात्रा नागरिक संयम और अनुशासन की ऐतिहासिक नज़ीर बन गई थी। एक दूसरा प्रसंग 1920 का याद किया जाना चाहिए। दिसंबर 1920 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पास हुआ। गांधीजी के नेतृत्व में भारत में वास्तव में यह पहला जनआंदोलन था। उनकी अपील पर आज की ही तरह फैक्टरियां, दफ्तर, स्कूल, कॉलेज, बाजार सब बंद हो गये थे। ब्रिटिश हुकूमत इस जनसत्याग्रह से बुरी तरह से हिल गई थी। उस समय की परिस्थितियों पर कई इतिहासकारों ने लिखा है कि यह भारत की आजादी का सबसे उपयुक्त वातावरण था। लेकिन जुहू-मुंबई और चौरीचौरा में हुई हिंसक घटनाओं ने गांधीजी को इतना उद्वेलित किया कि उन्होंने असहयोग की अपनी अपील को वापिस ले लिया। इस आंदोलन पर तत्कालीन अंग्रेज गवर्नर ने लिखा कि गांधीजी भारत को आजादी दिलाने से बस दो कदम दूरी पर थे; क्योंकि ब्रिटिश सरकार भारतीयों के इस अनुशासित आंदोलन को झेलने की स्थिति में नहीं रह गई थी। समानांतर रूप से अंग्रेज गवर्नर और दूसरे विद्वानों का यह मत भी था कि इस आंदोलन वापसी के निर्णय से गांधी बुद्ध और महावीर की तरह मानवता के इतिहास में याद किये जायेंगे। यह आंकलन आज सच साबित हुआ है। इन दो प्रसंगों को आज कोरोना संकट में प्रासंगिक कहा जायेगा क्योंकि संख्या बल के अनुसार प्रधानमंत्री मोदी असंदिग्ध रूप से दुनिया के सबसे बड़े अपीलकर्ता हैं। उनकी आवाज पर करोड़ों नागरिक बिल्कुल नियत वक्त पर खड़े हो जाते हैं। मैं यहां स्पष्ट कर दूं कि इस प्रसंग को लिपिबद्ध करने का उद्देश्य प्रधानमंत्री मोदी को गांधी निरूपित करना नहीं है। फिर भी एक प्रधानमंत्री के तौर पर उनकी अपील का विशाल और विस्तृत अनुपालन एवं नागरिक अनुशासन को कसौटी पर कसा जाना और समीचीन तो है ही। क्या इस बात पर विमर्श नहीं होना चाहिए कि प्रधानमंत्री की अपील को देश के नागरिक अनुशासन की किस सीमा तक स्वीकार करते हैं? क्या नागरिकों की नेतृत्व के प्रति तार्किक निष्ठा को लेकर कोई सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए ? गांधी जी ने नागरिक अनुशासन को सर्वोपरि प्राथमिकता पर रखकर ही गोरी हुकूमत को घुटनों पर लाने का काम किया था। प्रधानमंत्री मोदी की मंशा कोरोना की जंग को जनभागीदारी से जीतने की है। इस पर किसी को शुबहा करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि एक नागरिक के तौरपर हम प्रधानमंत्री की भावना और अपील को अपनी कतिपय अनुशासनहीनता और मूर्खता से कमतर करने की कोशिशें नहीं करनी चाहिए। विगत अप्रैल को प्रधानमंत्री ने स्पष्ट रूप से घर के अंदर रहकर उन कोरोना सेनानियों के सम्मान में थाली, घंटी, शंख ध्वनि का आग्रह किया था, जो इस जानलेवा महामारी में हमारे लिये देवदूत बनकर काम कर रहे हैं। 5 अप्रैल की रात्रि को प्रधानमंत्री ने एकजुटता और कोरोना सेनानियों के सम्मान में एक दीप, मोमबत्ती या मोबाइल टार्च जलाने का आग्रह किया था, लेकिन हम यहां भी अपनी नागरिक जवाबदेही को अनुशासन के दायरे में रखने में नाकाम रहे। प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कहा था कि घर में ही रहकर प्रकाश की व्यवस्था करनी है, लेकिन लाखों लोग आकर्षक दिये खरीदने, मोमबत्तियां खरीदने बाजारों में निकल लिए। बावजूद इसके कि हिंदुस्तान में एक भी घर ऐसा नहीं होगा जहां दीप प्रज्ज्वलित करने की व्यवस्था पहले से न हो। फिर हम तो आटे के दीप जलाते रहे हैं। हर घर में आज मोबाइल है और सभी मे टार्च भी है। इसके बाबजूद बिना वजह प्रधानमंत्री की अपील को दरकिनार किया गया। मूर्खता की हद तो आतिशबाजी चलाकर की गई। एक तरफ  पूरी दुनिया इस दीप प्रज्ज्वलन को देखकर भारत की समेकित शक्ति को निहार रही थी, दूसरी तरफ  लाखों लोग अतिशय अनुशासनहीनता का प्रदर्शन कर न केवल मोदी की अपील बल्कि भारत के नागरिक बोध पर भी सवाल खड़ा कर रहे थे। इस तरह के आचरण की न तो पीएम ने अपील की थी, न ही कोई आवश्यकता थी।दोनों जन अपीलों में प्रधानमंत्री ने कभी नहीं कहा कि थाली पीटने या दीप जलाने से कोरोना खत्म होगा, लेकिन ऐसे ही तर्क खड़े किए गए। ग्रिड फेल होने की बातें प्रचारित की गईं जबकि हमें समझना चाहिए  था कि यह अपील एक प्रधानमंत्री ने जारी की  है। करोड़ाें लोग मोदी के समर्थक नहीं हैं, फिर भी उन्होंने इसे इसलिये माना होगा कि यह व्यापक जनहित में है। पक्ष और विपक्ष की रेखाएं आखिरकार लोकतंत्र और राष्ट्र की मजबूती के लिए ही होती हैं। बेहतर होगा कि सरकार अगर कुछ गलतियां करती है तो उन्हें सक्षम मंच पर इस संकट से उबरने के बाद विमर्श का विषय बनाया जाए। सत्ता पक्ष के लोगों का भी दायित्व है कि वे प्रधानमंत्री को दलीय सीमा से ऊपर स्थापित होने का अवसर दें।

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