फिर वही कहानी

गहनों तथा कीमती कपड़ों से लदी हुई नव-विवाहित कल्पना अपने ससुराल में पहला कदम रखते ही अपने सपनों का संसार बुन बैठी थी। सास-ससुर की सेवा करना, जेठ-जेठानी को सम्मान देना, बस यही था उसके सपनों का संसार, और यही शिक्षा मिली थी उसे अपने माता-पिता से। पिता एक उद्योगपति, मां एक कुशल गृहिणी और छोटी बहन, जोकि परिवार में सबकी दुलारी थी। 8वीं कक्षा में पढ़ती थी। कल्पना तो स्नेह की मूर्त थी, अपनी बहन को भी उसने मां जैसा स्नेह दिया था। स्नेह से भरपूर कल्पना की इच्छा थी अपने ससुराल में भी सबकी चहेती बनने की, पर कहते हैं न कि किस्मत सदा एक सी नहीं रहती। सुख और दुख हमारे जीवन के दो पहलू हैं अगर आज वक्त अच्छा है तो ज़रूरी नहीं कि अच्छा ही रहे। दुख और सुख हमारे जीवन में बारी-बारी दस्तक देते हैं।कल्पना के जीवन में भी सुख का पहलू तो जैसे बीत चुका था और अब बारी थी दुख के पहाड़ की। ससुराल वालों के हृदय में केवल चार दिन तक का स्नेह ही था कल्पना के लिए जब तक कि उसके गहने नहीं मिल गए। जिस दिन कल्पना ने अपने गहने सासू मां के हाथ में ज़िम्मेवारी के तौर पर दिए, उसी दिन से उन्होंने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। कल्पना की सुबह भगवान का नाम लेकर नहीं बल्कि सास के तानों से शुरू होती और रात तक यह सिलसिला यूं ही चलता रहता। कुछ दिन तो कल्पना ने सहन किया और अपने मायके की इज्जत को ध्यान में रखते हुए चुप्पी साधे रखी पर यह तो रोज़मर्रा का काम बन गया। कभी दाज-दहेज का ताना तो कभी कल्पना के बनाए हुए खाने में दोष और कभी...पता नहीं क्या-क्या सहना पड़ता कल्पना को और वो अन्दर ही अन्दर घुटने लगी। कल्पना के पति वरुण उसकी तकलीफ को समझते तो थे, परन्तु भाई और पिता के साथ संयुक्त कारोबार होने के कारण कुछ बोलने में हिचकिचाते थे, परन्तु इन बातों पर कभी कभार कल्पना की तकलीफ हावी हो जाती और ऐसे में मां या बड़ी भाभी से बहस हो जाती।एक दिन वरुण जल्दी आफिस से घर आ गया और आते ही उसने जो नज़ारा देखा तो उसकी सहने की क्षमता से बाहर था। सामने डाइनिंग टेबल पर बड़ी भाभी आराम से बैठकर चाय की चुस्कियां ले रही थी और दूसरी ओर मां ने कल्पना के सामने एक कपड़ों का बड़ा-सा ढेर धोने के लिए लगा रखा था और उसे कपड़े धोने के बाद जो अगले काम करने थे, वो गिनवा रही थी। कल्पना उस समय तेज बुखार से तप रही थी हालांकि वरुण ने उसे पूरा दिन आराम करने की हिदायत दी थी परन्तु वरुण की मां ने कल्पना के बुखार को नज़रअंदाज़ कर केवल काम ही काम करवाया। सुबह से कल्पना के मुंह में अन्न का एक दाना तक नहीं गया था। कल्पना की ऐसी हालत देख कर वरुण ने उसका हाथ पकड़ा और उसे कमरे में ले गया। सारा परिवार वरुण की इस हरकत पर हैरान था। थोड़ी देर में सब फिर से अपने-अपने काम में जुट गए हालांकि किसी के पास करने के लिए कोई काम नहीं था। आधे घंटे के बाद वरुण हाथ में काले रंग का बैग उठाकर कल्पना को साथ लेकर अपने कमरे से बाहर आया। बाहर बरामदे में मां-पिता किसी न्यूज़ चैनल पर दहेज पीड़िता की हत्या की खबर को बड़े ध्यान से  देख रहे थे और साथ में टेबल पर रखी बिस्किट की प्लेट में से बिस्किट खाते हुए चाय की चुस्कियां ले रहे थे। बड़ी भाभी रसोई में शाम के खाने की तैयारी कर रही थी और बड़े  भईया भी दफ्तर से लौट कर अपने कमरे में आराम फरमा रहे थे।काले रंग के बड़े से बैग के साथ जब वरुण और कल्पना को मां ने कमरे से बाहर आते देखा तो चाय का कप टेबल पर रखते हुए बोली ‘कहां जा रहे हो तुम दोनों?’ मां की आवाज़ सुनकर बड़ी भाभी भी गीले हाथ कपड़े से पोंछती हुई रसोईघर से बाहर निकल आई। ‘अब हम इस घर में नहीं रहेंगे। हम घर छोड़कर जा रहे हैं।’वरुण ने उत्तर दिया। ‘क्यों?? क्या बकवास है यह’ तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया? पिता जी ने हड़बड़ाते हुए कहा।दिमाग तो अब ठीक हुआ है पिता जी। यह फैसला तो हमें बहुत पहले ही कर लेना चाहिए था, पर हम घर की मान-मर्यादा की वजह से चुप थे और यही उम्मीद लगाए बैठे थे कि आज नहीं तो कल, कभी तो आप कल्पना को समझेंगे। पर नहीं... अब सहने की शक्ति से बाहर है। वरुण ने अपनी दलील देते हुए कहा।हां...हां... ठीक है। बेटा! आज मां-बाप की बातें सहने के लायक नहीं। बीवी का पल्लू मिला तो मां का आंचल छूट गया...। हे भगवान..., यही दिन दिखाने के लिए ज़िंदा रखा मुझे। (क्रमश:)