मंदी और बेरोज़गारी के बढ़ते साये

देश एक बार फिर भीषण मंदी के उपजने के कगार पर खड़ा है। इस बार की मंदी की भयावहता के लिए कोरोना वायरस को काफी सीमा तक ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है हालांकि देश में लॉक-डाऊन और कोरोना कर्फ्यू से पूर्व भी वित्त विशेषज्ञों ने मंदी के आगमन की आहट को महसूस कर लिया था। लॉक-डाऊन से पूर्व ही देश में विकास दर और सकल घरेलू उत्पाद की दर में कमी के संकेत मिलने लगे थे। भारतीय रिज़र्व बैंक ने एकाधिक बार स्वीकार किया कि देश को आगामी समय में आर्थिक मंदी का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी चेतावनी सूचक शब्दों में दावा किया था कि विश्व को समूचे तौर पर भीषण मंदी का सामना करना पड़ सकता है। इसके साथ भारत में भी मंदी की यह लहर दूर तक और देर तक अपने पांवों के निशान छोड़ जाएगी। इन दोनों वित्तीय संस्थानों ने भारत की विकास दर के न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाने की भी चेतावनी दी थी।वैश्विक मंदी का आलम यह है कि अमरीका इससे सर्वाधिक प्रभावित होने जा रहा है। कोरोना के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए अमरीका की सरकार ने भारी-भरकम वित्तीय पैकेजों की घोषणा की है, परन्तु इसके बावजूद स्थितियों में कोई बड़ा सुधार आते प्रतीत नहीं होता। विशेषज्ञों ने इस आशंकित मंदी को अमरीका की 1930 की मंदी के समतुल्य होने की आशंका व्यक्त की है। यदि ऐसा होता है तो इससे अमरीका में तो संकट पैदा होगा ही, यूरोप के कई अन्य देशों में भी मंदी के इस संकट के पांवों के निशान दूर तक और देर तक महसूस किये जाएंगे। मंदी की इस आहट को इस एक तथ्य से ही महसूस किया जा सकता है कि देश में बेरोज़गारों की तादाद में निरन्तर वृद्धि हुई है। कोरोना वायरस के कारण हुए लॉक-डाऊन के दृष्टिगत अमरीका सहित यूरोप के कई देशों में काम-धंधे बंद होने से करोड़ों की तादाद में रोज़गार कम हुए हैं।मंदी की इस आहट के जहां तक भारत में महसूस किये जाने की बात है, तो नि:संदेह बेकारी एवं बेरोज़गारी के संकट के साये निरन्तर भयावह होते जा रहे हैं। एक मास की तालाबन्दी के दौरान उद्योग एवं व्यवसायों में भीषण मंदी छा गई है। अधिकतर श्रमिक एवं कामगर खाली हाथ अपने घरों को लौट गये हैं। केन्द्र और राज्यों की सरकारों की घोषणाओं के बावजूद देश के काम-धंधों को पूर्व की भांति पटरी पर लौटने में लम्बा समय लगेगा, और किसी भी धरातल पर उत्पादन न होने के दृष्टिगत स्थितियों के और  गम्भीर होते जाने की सम्भावना है। अमरीका की ही तरह भारत में भी रोज़गार के करोड़ों अवसर खो जाएंगे। नये रोज़गारों के सृजन की सम्भावना भी दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। देश के विमानन क्षेत्र, बीमा क्षेत्र, ई-तकनीकी क्षेत्र और मॉल संस्कृति क्षेत्र में भी लाखों लोगों के बेरोज़गार हो जाने की आशंका है। इनमें से सर्वाधिक बुरा प्रभाव विमानन क्षेत्र पर ही पड़ेगा। कोरोना महामारी के चलते सोशल डिस्टैंसिंग की मांग अभी और चिरकाल तक बने रहने की सम्भावना के दृष्टिगत, नये रोज़गारों के सृजन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस कारण निकट भविष्य में एक पूरी पीढ़ी के सिर पर मंडराते बेकारी के संकट के कारण युवा वर्ग में नैराश्य की भावना का उपजना भी बहुत स्वाभाविक हो जाता है। देश में औद्योगिक एवं व्यवसायिक गतिविधियों के पूरी तरह खुलने में अभी और कितना समय लग सकता है, इस बारे में भी कोई आधिकारिक वक्तव्य नहीं आ रहा। यह तथ्य भी देश में मंदी और बेरोज़गारी की आशंकाओं में इज़ाफा करेगा।विश्व बैंक की एक रिपोर्ट देश की वित्तीय स्थिति को और गम्भीर बना देने हेतु काफी है। विश्व बैंक के अनुसार वैश्विक धरातल पर उपजी मंदी के कारण विदेशों से भारत में आने वाली पूंजी 23 प्रतिशत तक कम हो सकती है। भारत में विदेशी पूंजी का मुख्य स्रोत अमरीका, ब्रिटेन, कनाडा और खाड़ी देशों में मौजूद भारतीय नागरिक बनते हैं, परन्तु वर्तमान में इन देशों पर भी कोरोना की मार भयावह तरीके से पड़ी है। दूसरे, खाड़ी देश कच्चे तेल की कीमतों में भारी कमी के संकट से जूझ रहे हैं। इन देशों से भारत में आने वाली पूंजी में कमी मंदी के संकट को और गम्भीर बनाएगी।हम समझते हैं कि कोरोना वैश्विक महामारी के कारण पूरा विश्व आसन्न मंदी से त्राहिमाम करने की नौबत तक पहुंच चुका है। इस स्थिति से बचने अथवा इस संकट से पार पाने के लिए एक समुचित एवं नियोजित योजनाबंदी ही एकमात्र उपाय हो सकती है। देश के कर्णधारों को यह भी ध्यान में रखना होगा कि अरब देशों एवं योरुपीय देशों से भारत की स्थितियां भिन्न हैं। वैसे भी भारत विकासशील देश है। कोरोना की मार देश की आर्थिकता पर पड़ी है। वैश्विक धरातल की इस मंदी का रुख मोड़ना बेशक सम्भव न हो, परन्तु समुचित योजनाबंदी से इसकी बुरी मार से बचा जा सकता है। इस योजनाबंदी के तहत, रोज़गार के जो अवसर उपलब्ध हैं, उन्हें सुरक्षित एवं संरक्षित करके वास्तविक हाथों तक पहुंचाया जाना बहुत ज़रूरी है। हम समझते हैं कि ऐसी ही किसी नियोजना की अपेक्षा देश के लोग अपनी सरकार के कर्णधारों से करते हैं।