ज़माना एप के ज़रिये पढ़ाई करने का

मोबाइल इंटरनेट ने जिंदगी को बुलेट रफ्तार जिंदगी बना दिया है। इसमें ऑक्सीजन तो इंटरनेट और धड़कन ’ व्हाट्स-एप ’। ये न होना मानो डिजिटल स्पीड न होना या डिजिटल मनोरंजन न होना। व्यक्ति की निजी जिंदगी से लेकर कामकाजी सूचनाएं इसी पर रफ्तार पकड़ती है। चिट्ठी तो पीछे-पीछे चलती है। वास्तविकता में मोबाइल, व्हाट्स-एप छोटी-छोटी सूचनाएं आदान प्रदान करने के लिए हैं अभी तक तो मैं यही समझता था या जब से समझ आई है।  इंटरनेट ने सूचनाओं का पिटारा तो खोला पर ज्ञान के कपाट नहीं।  अक्सर मैं अपने दोस्तों को भी इनके सदुपयोग करने के बारे में विमर्श देता रहता हूं चूंकि सभी विषयों को व्हाट्स-एप द्वारा नहीं बताया जा सकता। रोज़ सुबह घर आने वाले समाचार पत्र की अपनी महत्वता है।  पौ अभी फटी भी नहीं थी कि एक मैसज आया और स्वपन की तरह सब टूट गया। क्रांति से भरा संदेश चंद शब्द ’गु्रप बनाओ बच्चों को पढ़ाओ’ कुछ ने तो इस दौड़ में ‘विजय ध्वज’ फहरा भी दिया था। गु्रप बन चुके थे एडमिंस तैयार थे ’असर-ए -कोरोना’ साफ  दिख रहा था बच्चों का नई कक्षा मेगा बम्पर भी लग चुका था। कोरोना कहर के बीच तकनीकी युग व सुपर रिचार्ज पैक द्वारा शिक्षा क्रांति का एक नया सूर्योदय हुआ। ’ व्हाट्स-एप क्लास......!’ भारत में सभी के पास पर्याप्त साधन नहीं हैं। अभिभावकों की अपनी बहुत मजबूरियां हैं शिक्षा चुनौतियों के बीच मुफ्त किताबें मददगार तो बनती है पर शिक्षा खर्च के बोझ को कम नहीं करती। राजकीय विद्यालयों में तो ज्यादातर बच्चे मध्यवर्गीय या निम्न परिवारों से आते हैं और यह आवश्यक नहीं की सभी के पास पर्याप्त साधन हों।  दुनिया के एक तिहाई से अधिक कुपोषित बच्चे भारत में रहते हैं और यूनिसेफ  के अनुसार  5 वर्ष से कम आयु के 69 प्रतिशत बच्चों की मौतें कुपोषण के कारण हुई हैं।  ऐसे  में मात्र दिखावा करना है या सही समय आने का इंतजार करना है यह भी स्वयं में एक बौद्धिकता का विषय है। बच्चे तो पूछ ही रहे हैं। ‘सर जी’ काम कच्ची कॉपी पर करना है या पक्की। जो टी.वी. पर आएगा उसको लिखना है या नहीं। अध्यापन में महत्वपूर्ण तो शिक्षक और विद्यार्थियों का विषय में  पारस्परिक भागदारी को बनाना होता है जो विद्यार्थियों की सीखने की प्रवृति को प्रबल बनाती है। व्हाट्स-एप पर कैसे?। परिस्थितियों के अनुसार ढलना तो ठीक है पर गले की फांस बनाना कैसी नैतिकता।

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