उद्धव ठाकरे की कुर्सी पर कोरोना का खतरा

देश में इस समय कोरोना संक्रमण के संकट से सर्वाधिक प्रभावित राज्य महाराष्ट्र से आ रही राजनीतिक खबरें वहां पर एक बार फिर राजनीतिक संकट खडा होने का संकेत दे रही हैं। पिछले सप्ताह राज्य मंत्रिमंडल ने एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए सूबे के राज्यपाल ने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को राज्य की विधान परिषद का सदस्य मनोनीत करने की सिफारिश की है। यह सिफारिश अभूतपूर्व इस मायने में है कि इससे पहले देश में विधान परिषद वाले किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री के लिए ऐसी सिफारिश करने की नौबत नहीं आई। महाराष्ट्र में यह सिफारिश इसलिए करनी पड़ी है क्योंकि उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री का पद संभाले छह महीने पूरे होने वाले हैं, लेकिन वह अभी तक राज्य विधानमंडल का सदस्य नहीं बन पाए हैं। महाराष्ट्र में दो सदनों वाला विधानमंडल है—विधानसभा और विधान परिषद। मुख्यमंत्री या मंत्री बनने के लिए इन दोनों में से किसी एक सदन का सदस्य होना अनिवार्य है। उद्धव ठाकरे अभी न तो विधायक हैं और न ही विधान पार्षद (एमएलसी)। अगर राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने इस सिफारिश को स्वीकार कर लिया तो देश में यह पहला मौका होगा जब किसी राज्य का मुख्यमंत्री विधानमंडल का निर्वाचित सदस्य न होकर मनोनीत सदस्य होगा। लेकिन अगर राज्यपाल ने मंत्रिमंडल की सिफारिश को ठुकरा दिया तो आगामी एक मई को 60 बरस के होने जा रहे महाराष्ट्र के राजनीतिक इतिहास में एक अभूतपूर्व संकट पैदा हो जाएगा। इस संकट के चलते न सिर्फ मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की कुर्सी दांव पर लगेगी बल्कि चंद महीनों पहले बड़ी मशक्कत के बाद बनी महाविकास अघाडी यानी शिव सेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और कांग्रेस के गठबंधन की सरकार का वजूद भी खतरे में पड जाएगा। कुल मिलाकर इस संवैधानिक पेंच वाले संकट की चाबी सूबे के राज्यपाल और प्रकारांतर से केंद्र सरकार के पास है। उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के ऐसे आठवें मुख्यमंत्री हैं, जो विधानमंडल के किसी भी सदन का सदस्य निर्वाचित हुए बगैर ही मुख्यमंत्री बने हैं। उनसे पहले 1980 में अब्दुल रहमान अंतुले, 1983 में वसंतदादा पाटिल, 1985 में शिवाजीराव निलंगेकर पाटिल, 1986 शंकरराव चह्वाण, 1993 में शरद पवार, 2003 में सुशील कुमार शिंदे और 2010 में पृथ्वीराज चह्वाण भी मुख्यमंत्री बनने के बाद विधानमंडल के सदस्य बने थे। दरअसल महाराष्ट्र में इस समय जो स्थिति पैदा हुई है, उसके लिए कोई और नहीं बल्कि सत्ता पक्ष खुद ही जिम्मेदार है। उद्धव ठाकरे ने विधानमंडल के किसी भी सदन का सदस्य निर्वाचित हुए बगैर 28 नवंबर 2019 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। संविधान की धारा 164 (4) के अनुसार उन्हें अपने शपथ ग्रहण के छह महीने के अंदर यानी 28 मई से पहले अनिवार्य रूप से राज्य के किसी भी सदन का सदस्य निर्वाचित होना है। इस संवैधानिक अनिवार्यता से वाकिफ ठाकरे ने हालांकि मुख्यमंत्री बनने के बाद ही तय कर लिया था कि वह विधानसभा का सदस्य बनने के बजाय विधान परिषद का सदस्य बनकर संवैधानिक अनिवार्यता पूरी करेंगे लेकिन इसे पूरा करने में उन्होंने जरा भी तत्परता नहीं दिखाई। ठाकरे के मुख्यमंत्री बनने के बाद 7 जनवरी 2020 को विधान परिषद की दो सीटों रिक्त सीटों के लिए उपचुनाव हुए थे। ठाकरे चाहते तो इनमें से किसी भी एक सीट से चुनाव लडकर विधान परिषद के सदस्य बन सकते थे, क्योंकि दोनों ही सीटें सत्तापक्ष के सदस्यों के इस्तीफे से खाली हुई थीं। ये दोनों ही नेता विधानसभा के लिए चुन लिए गए थे, लिहाजा उन्होंने विधान परिषद से इस्तीफा दे दिया था।  दोनों ही निर्वाचन क्षेत्रों में सत्तारुढ गठबंधन के पास पर्याप्त संख्या बल था। लेकिन शायद उन्होंने उपचुनाव के जरिए निर्वाचित होने की बजाय 24 अप्रैल को खाली हो रही विधायकों के कोटे वाली नौ सीटों के नियमित चुनाव का इंतजार करना उचित समझा। अगर स्थितियां सामान्य रहतीं तो ठाकरे को विधान परिषद का सदस्य बनने में कोई दिक्कत नहीं होती, लेकिन कोरोना वायरस के संक्त्रमण से पैदा हुए संकट के चलते स्थितियां पूरी तरह बदल गई हैं। (संवाद)