" 1 मई को मज़दूर दिवस पर विशेष " सतत् संघर्ष का परिचायक  मज़दूर दिवस

किसी मांग और अधिकार के लिए जब करोड़ों हाथों की मुट्ठियां संघर्ष के लिए भिंच जाति हैं तो उसके पीछे मनुष्य के अदम्य साहस और संघर्ष का एक बेबाक सिलसिला घटित होता है। इसके पीछे परिणाम और मतलब चाहे जितने भी गंभीर क्यों न हों लेकिन समाज के नियंताओं के आदि तत्व से जुड़ा सवाल क्रांतिकारी ही होता है, और यह क्रांति समूचे देशकाल के अस्तित्व को लांघ कर पूरे विश्व को सोचने पर मजबूर करती है। तब अवश्य ही इसके परिणाम सुखद होते हैं। ऐसी स्थिति में दुनिया की जनशक्ति ऐसे संघर्ष से लगाव रखती है और यह सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर इस संघर्ष के पीछे मूल कारण क्या है।  कुछ ऐसे ही संघर्षों की तारीखों के जंगले में 1 मई ऐसा ही दिवस है जो समूचे विश्व के मजदूरों के अधिकारों की याद दिलाता है। मज़दूरों के हकों के लिए उठे संघर्षशील हाथों व स्वरों की जनक्रांति 1817 में रूस में हुई थी और इस सर्वहारा क्रांति के महान जननायक ब्लादिमीर इल्यीच लेनिन थे। हालांकि जनसंघर्ष के रूप में कार्ल मार्क्स का भी उल्लेखनीय योगदान है किन्तु इस दिवस की राजनितिक परिणति 1 मई के ही रूप में हुई थी। कार्ल मार्क्स के निधन के ठीक 3 वर्ष बाद 1 मई को शिकागो के मज़दूरों ने एकजुट होकर पूंजीवाद के विरुद्ध अपने स्वरों को मुखरित करते हुए ऐलान किया कि वे पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ हैं।  अमरीका की सड़कों पर मज़दूरों के सर व उठे हुए हाथ ही नज़र आ रहे थे। इस दिन सभी जाति, धर्म, वर्ण व भाषा की दीवारें गिर चुकी थीं व मज़दूर एकता ज़िंदाबाद के नारों से शहर गूंज रहे थे। लेक फ्रंट पर यह विशाल रैली सभा में तब्दील हो गई, जिसे तत्कालीन राजनेताओं अल्बर्ट पार्सस और स्पाई ने जोश भरे स्वरों में संबोधित किया। इन्होंने अपने ओजस्वी भाषणों से मज़दूर वर्ग को अधिकारों, संगठन व शक्ति के प्रति सचेत कराया। इस जुलुस की विशेषता यह थी कि 80 हज़ार मज़दूर शांतिपूर्वक अपने नेताओं को सुनते रहे। हड़ताल जब और आगे फैलने लगी तो सत्ता के उन्माद में पागल होकर मैकर्मिक हार्वेस्टर कारखानें में घुस पड़े और लाठी-गोली मज़दूरों पर बरसाई गई, जिसके परिणामस्वरूप कई मज़दूर मारे गए और सैकड़ों घायल हो गये। 3 मई को उत्तेजित मज़दूरों का जिस्म लाल रक्त में डूब गया। इस वहशीपन व निरंकुश दमन से क्रुद्ध होकर मज़दूर नेता स्पाई ने 4 मई को पुन: विशाल मज़दूर सभा को संबोधित किया, परन्तु इस बार भाषण के बाद मज़दूरों पर जो अन्याय व दमन का चक्र चलाया गया, उससे ढेरों लाशें बिछ गईं व हज़ारों मज़दूरों के हाथ-पैर तथा सिर तोड़ डाले गए। इस बर्बर अत्याचार के बावजूद मज़दूर नेताओं की गिरफ्तारी की मांग की गई व उन्हें अविलम्ब फांसी दिए जाने की मांग की गई। इसके बाद स्पाइज, फिलडेन, माइकल जॉर्ज व फिशर आदि मज़दूर नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया व केस चलाया गया। अंतत: इन नेताओं को 1 अक्तूबर, 1886  को फांसी का हुक्म सुनाया गया व 11 नवम्बर को उन्हें फांसी दे दी गई। 1 मई, 1886 की ऐतिहासिक घटना ने पूरे विश्व को झकझोर कर रख दिया और इसके ठीक ढाई वर्ष बाद दिसम्बर 1888 में अमरीका फैडरेशन के मज़दूरों ने निर्णय लिया कि अमरीका में प्रतिवर्ष एक मई को मज़दूर दिवस के रूप में मनाया जाएगा। 14 जुलाई, 1889 को पेरिस कांग्रेस के प्रस्ताव में इस दिन को अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस के रूप में मान्यता मिली।  किसी भी देश व समाज की मज़दूर, किसान व दलित हैं लेकिन फिर भी इस सर्वहारा वर्ग के साथ कितना न्याय किया जाता है, यह किसी से भी छुपा हुआ तथ्य नहीं है। हालांकि आर्थिक मंदी ने पूरे विश्व को झकझोरा है किन्तु काम करने वाले हाथों ने कभी काम से मुंह नहीं मोड़ा है। फिर भी उन्हें लूटने, खसोटने वाले थैलीशाहों की कमी नहीं है। दिन-रात कमरतोड़ मज़दूरी करने के बावजूद श्रमिकों को अपने श्रम का सही हिस्सा मजदूरी के रूप में नहीं मिल पाता है। जब मज़दूर वर्ग अपने बुनियादी हकों की मांग के लिए मुठ्ठियां तानकर संघर्ष की राह पकड़ता है, तब सत्ता के गलियारे में बैठे नेताओं की नींद भंग होती है और इन मज़दूर आंदोलन के नेताओं की राजनीतिक तौर पर खरीद-फरोख्त कर उन्हें ठंडा करने की कोशिश की जाती है। मज़दूरों की आवाज़ सख्ती से दबाने की भोंडी चालें चली जाती हैं, लेकिन यह वह आवाज़ है जो किसी के दबाए दब नहीं सकती है।