फिर वही कहानी

यह बात बोलते हुए मां रोने लगी और कल्पना पर तरह-तरह के ताने कसने लगी। पिता जी गुस्से से झल्लाए बिना कुछ बोले मुंह घुमा कर खड़े रहे। मां के रोने की आवाज़ सुनकर बड़े भईया भी कमरे से बाहर निकल आए। ‘वरुण। ये क्या नया तमाशा लगा रखा है। पचास बार कहा है कि खुद भी चैन से रहो और दूसरों को भी रहने दो। यह बैग ले कर कहां जा रहे हो?’ बड़े भइया गरजती आवाज में बोले। इससे पहले कि वरुण कोई उत्तर देता मां पहले ही बोल पड़ी ‘देखो न बेटा! कल की आई इस नई बहू ने न जाने वरुण को क्या-क्या पट्टियां पढ़ाई कि अब यह हमारे साथ रहना नहीं चाहता।’वरुण ने बिना कुछ कह कहे अपना बैग उठाया और कल्पना को लेकर घर से निकल गया। सभी परिवार वाले वरुण और कल्पना को जाते हुए देख रहे थे, परन्तु वरुण ने पीछे मुड़कर एक बार नहीं देखा।निकल पड़े थे दोनों अपने नये जीवन की ओर और ढूंढने लगे अपने लिए आश्रय। इस सफर में दोनों ही एक दूसरे का सहारा थे। दोनों ने दिल्ली की टिकट ली, और गाड़ी में बैठ गये। यूं ही सड़क पर चलते-चलते अपने ख्यालों में गुम वरुण अचानक एक  व्यक्ति से टकरा गया। दिखाई नहीं देता क्या? भगवान ने दो आंखे देखने के लिए... अरे वरुण। तुम और यही दिल्ली में। निखिल ने शांत हुए हैरानी वाले लहजे से कहा। निखिल वरुण का कालेज का दोस्त था जो शादी के बाद दिल्ली सैटल हो गया था।‘हां, निखिल! कैसे हो यार।’ ‘हां, मैं तो ठीक हूं पर तुम यहां कैसे हो यार। घर छोड़ कर आया हूं। बाकी बातें बाद में करना पर पहले हमें इस अनजान शहर में आश्रय चाहिए। क्या तुम कोई किराए का घर हमारे लिए इंतजाम कर दोगो?’ ‘हां, कोशिश करता हूं। शायद बात बन जाए।’ निखिल ने उम्मीद जताते हुए कहा। एक दो फोन कॉल किए और जैसे तैसे करके एक कमरा कल्पना और वरुण को किराए पर दिलवा दिया।वरुण निखिल का शुक्रिया जताते हुए अपने नए आश्रय की तरफ बढ़ा। दूसरी बड़ी चुनौती थी वरुण के लिए इस बड़े शहर में नौकरी की तलाश। खैर! आश्रय मिल गया तो नौकरी भी मिल ही जाएगी। शाम होते ही वरुण और कल्पना मार्किट में से कुछ ज़रूरत का सामान खरीद लाए। थोड़े सामान से ही कल्पना ने घर को बड़ी ही सहजता से सजाया था। दूसरे दिन सुबह होते ही वरुण ने अपने-अपने सर्टीफिकेट और डिग्रियां एक फाइल में लगाई और चल पड़ा। आखिर वरुण को 6000 प्रति महीना के वेतन पर नौकरी मिल गई जो उसके लायक तो नहीं थी पर कहते न कि मुसीबत इन्सान को हर हाल में रहना सिखा देती है। वरुण का वेतन अब 25 हज़ार रुपये हो गया था। उनके घर बेटा पैदा हुआ जिसका नाम उन्होंने वैकल्प रखा। अब वरुण ने जैसे-तैसे एक छोटा-सा मकान भी खरीद लिया था, जिसके लोन की किश्त हर महीने वो बैंक में जमा करवता था। एक दिन कल्पना ने शाम के वक्त चाय पीते समय कहा- वरुण क्या मैं भी नौकरी कर लूं? कितनी महंगाई है। समय के साथ-साथ कितने खर्चे बढ़ते हैं और फिर आगे वरुण की पढ़ाई...।‘हां तो कर लो। तुम्हें मैंने कभी किसी बात से रोका’ कल्पना की बात को बीच में ही काटते हुए वरुण बोला।‘पर पैकल्प।’ वरुण ने चिंता जताते हुए कहा। उसकी चिंता तुम मत करो। अपने पड़ोस वाली चाची है न, उन्होंने कहा है कि वो वैकल्प को सम्भाल लिया करेंगे... और वैसे भी यह शैतान सारा दिन उधर ही तो रहता है। कल्पना चहकती हुई बोली वरुण ने हां में सिर हिलाते हुए ठंडी सांस ली। दूसरे दिन से ही कल्पना ने भी नौकरी की तलाश शुरू कर दी और 8-10 दिनों तक अलग-अलग जगह पर इंटरव्यू देने पर एक कम्पनी से उसे 7000 के वेतन पर नौकरी पेशकश हुई और कल्पना ने उसे तुरंत स्वीकार कर लिया।कल्पना बहुत खुशी थी उस दिन शादी की चौथी सालगिरह जो थी और साथ में वैकल्प का दूसरा जन्मदिन। दोनों शुभ अवसर एक ही दिन थे। इसलिए खुशी ज़रा दुगुनी थी। दोनों ने पहले ही प्लानिंग कर ली थी कि शाम को आफिस का काम जल्दी से निपटा कर मार्किट जाएंगे, खरीददारी करेंगे और रात को घर पर ही पार्टी करेंगे। कल्पना तो जैसे-तैसे काम खत्म करके एक घंटा पहले आफिस से निकल गई। (क्रमश:)