धर्मराज के दरबार में...!

धर्मराज उर्फ यमराज का भव्य दरबार सजा हुआ था। वह सभागार के बीचो-बीच अत्यंत सुसज्जित ऊंचे आसान पर विराजमान थे। आसपास के आसनों पर बैठे हुए अनेक मंत्री गण उनके दरबार की शोभा बढ़ा रहे थे। ठीक उनकी बगल वाले आसन पर अपनी आंखों पर मोटा सा चश्मा चढ़ाए, बड़ी-बड़ी पोथियों के साथ, हाथ में मोर पंख लिए चित्रगुप्त आसीन थे। भांति-भांति के मानव, दानव तथा अनेक जीव-जन्तु धर्मराज के सामने पेश होने के लिए प्रतीक्षालय में बैठ कर अपनी-अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे। फिर उस पर यमराज के पहरेदार, हाथों में खंजर, तलवार, भाले और चेहरों पर चट्टान सी कठोरता लिए हर जगह मौजूद थे। मैं तो धर्मराज के पहरेदारों को देख कर ही डर गया। जीवन में आज तक लाइन में नहीं लगा था लेकिन यहां के नियम बड़े सख्त थे। रुपया-पैसा तो यमदूत ने पहले ही छूने नहीं दिया था। यहाँ पर कोई जान-पहचान भी न थी। मरता क्या न करता, जीवन में प्रथम बार आम लोगों की तरह लाईन में लगकर अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगा। जंगल में रहने वाले हिंसक व भयानक जानवर, मनुष्य के साथ रहने वाले पालतू जानवर, आसमान में उड़ने वाले स्वछंद परिंदे और सागर में  रहने वाले जीव-जन्तु सब के सब अपने-अपने समूह बना कर धर्मराज के दरबार में जा रहे थे। मेरे लिए यह अद्भुत, अकल्पनीय व अविश्वस्नीय था। परन्तु यहां तो सब कुछ आंखो के सामने हो रहा था। संदेह की कोई संभावना ही नहीं थी। मैंने अपने पूर्वजों से सुना था कि एक अदालत आसमान पर भी होती है जिसका संचालन स्वयं धर्मराज करते हैं। वहाँ प्रत्येक प्राणी को उसके कर्मानुसार स्वर्ग-नर्क के दरवाजे खोले जाते हैं। व्यक्ति को वहां नितांत अकेले ही जाना पड़ता है परन्तु एक मुझे छोड़ कर सारे जीव समूह बना कर जा रहे थे। उन सबके व्यवहार में एक बात सामान्य थी, अंदर जाने वाले जीवों का प्रत्येक समूह मुझे ऐसे देख रहा था जैसे दुनियां का सबसे निकृष्ट प्राणी मैं ही हूँ। चंद क्षणों के बाद मैं धर्मराज के दरबार में था। मुझे देखते ही वहां सन्नाटा छा गया,  किसी मनहूस को देख लिया गया हो। चित्रगुप्त ने अपने मोटे चश्मे को उतार कर कहा, महाराज यही है वह मनुष्य जिसने अपनी लालसाओं की पूर्ति हेतु  समग्र धरती को नर्क बना दिया। इसके कारनामों की सूची इतनी लम्बी है कि घोर नर्क की सज़ा भी इसके लिए कम है। वैसे नरक की सज़ा से इसे फर्क भी क्या पड़ेगा, ये तो पहले हर नरक में रहने का आदी हो गया है। आशा के विपरीत धर्मराज ने बड़े शांत एवं सौम्य स्वर में पूछा क्यों मनुष्य, हमने तो तुम्हें सर्वगुण संम्पन बना कर पृथ्वी लोक पर भेजा था। तुम्हारी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु निर्मल जलए शुद्ध वायु, फल-फूल व पेड़-पौधे भी तुम्हें दिए थे।  सब जीव-जन्तुओं को दरकिनार करके तुम्हें बुद्धि भी दी थी ताकि तुम पृथ्वी को स्वर्ग बना कर देवताओं की मानिंद रह सको। मगर आश्चर्य है जंगल का राजा शेर भी तुम्हारे भय से आक्रांत हैष कह रहा था कि तुमने  उसके जंगल में भी अतिक्रमण कर दिया है। जंगल का राजा और उसकी समस्त प्रजा  के पास अगर रहने के लिए स्थान ही न रहे तो कहाँ का राजा कहलाएगा? वो जल में रहने वाले जीव भी तुम्हारी शिकायत कर रहे थे कि तुमने विकास के नाम पर तमाम नदियों, नालों, तालाब यहाँ तक कि समुंदर  के जल को भी दूषित कर दिया। तुम्हीं बताओ ये जलचर कहां रहें? स्वच्छ  आकाश में स्वछंदता से उड़ने वाले परिंदे भी तुमसे परेशान हैं । तुमने बड़ी-बड़ी  फैक्टरियां लगा कर न केवल वायु को प्रदूषित किया अपितु खेतों में जहरीली खाद  डाल कर उनके भोजन को भी जहरीला बना दिया। अब क्या-क्या बताऊं, किस-किस की बताऊ, यहाँ तक कि पेड़-पौधे, नदियाँ, नालें, तालाब, पहाड़, जल और वायु  भी  तुम्हारे उन्मुक्त स्वभाव से भयभीत व आक्रांत हैं। आज वे सब मिल कर तुम्हारी तुलना एक भयंकर वायरस से कर रहे थे, जिसने उन सबका जीवन दूभर कर दिया है। हे मनुष्य, तुम्हें अपनी सफाई में कुछ कहना है?  धर्मराज ने जो कुछ भी कहा था, वह एक कड़वा सत्य था। मुझसे उनके एक भी प्रश्न का उत्तर न दिया गया। अब धर्मराज अपने सबसे अज़ीज़ व वरिष्ठ अधिकारी अर्थात चित्रगुप्त की तरफ  मुखातिब हुए तुम ही कहो चित्रगुप्त, धरती पर  रक्तबीज की तरह फैलते जा रहे इस मनुष्य नाम के वायरस का क्या करना है ? जैसे ही चित्रगुप्त ने अपना मोरपंख उठया और लाल पोथी पर कुछ लिखने उद्यत्त हुआ, मेरी आंख खुल गई। मैं हड़बड़ा कर उठ गया। अपने आप को घर के बिस्तर पर पाकर मन अति प्रसन्न हुआ। सोचा, मैं बिना कारण इतनी चिंता में आ गया था।  यह तो मात्र एक सपना था।  लेकिन अब एक नई चिंता ने मुझे आ घेरा है, कहीं यह कोरोना वायरस प्रकृति के संरक्षण हेतु  धर्मराज द्वारा मनुष्यों की उन्मुक्त इच्छाओं पर अंकुछा लगाने का एंटीवायरस तो नहीं!

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