फिर वही कहानी

धीरे-धीरे उसने वैकल्प को मां से अलग रखना शुरू कर दिया। अब वो शाम को लौटते समय रोज ही पार्क में जाने की ज़िद्द कर बैठती और अंधेरा होने पर ही वहां से उठती। कभी-कभी वो वैकल्प को झूठी ही ऐसी बातें बताती जिसका संबंध शायद कल्पना से कभी होता ही नहीं था। ये बातें वैकल्प के मन में मां के प्रति स्नेह को कम करने लगी। धीरे-धीरे वो भी मां से कटा-कटा सा रहने लगा। एक दिन सुबह कल्पना सोफे पर बैठकर धार्मिक प्रोग्राम टी.वी. पर देख रही थी। तभी स्नेहा कुछ हड़बड़ी में ढूंढती हुई आई। कल्पना ने उनसे पूछा कि क्या ढूंढ रही हो? तो स्नेहा ने इस बात का उत्तर देना ज़रूरी न समझा। इतने में वैकल्प भी शर्ट का कॉलर ठीक करते हुए स्नेहा से पूछने लगा कि क्या ढूंढ रही हो?‘वो मिस्टर मेहरा की केस फाइल नहीं मिल रही। आज कोर्ट में उसकी तारीख है।’ स्नेहा ने चिंता जताते हुए जवाब दिया और फाइल ढूंढती हुई कल्पना जहां बैठी थी उसी सोफे की गद्दी के नीचे भी ढूंढने लगी। कल्पना उठकर अगले सोफे पर जा बैठी। जिस पर कल्पना पहले बैठी थी, उसी गदी को जब स्नेहा ने उठाया तो फाइल उसी के नीचे थी। शायद यह स्नेह की ही चाल थी एक बार फिर बेटे के सामने मां को नीचा दिखाने की।‘देखा तुमने वैकल्प, मां जी ने जान बूझ कर मेरी फाइल अपने नीचे छुपा कर रखी कि मैं ये केस हार जाऊं। इनसे तो मेरी सफलता बर्दाश्त ही नहीं होती।’ कहते ही स्नेहा अपने घड़ियाली आंसू पोंछती हुई चुप कर गई।इससे पहले कि कल्पना कुछ कहती वैकल्प ने बोलना शुरू कर दिया। ‘क्या करूं मैं? मुझे तो यकीन नहीं होता कि मां तुम ये सब... शब्द न मिले तो वैकल्प चुप कर गया। कुछ पल विश्राम के बाद वैकल्प ज़ोर से मां पर चिल्ला उठा,’ ‘क्यों तंग करके रखा है हमें?’ चली क्यों नहीं जाती हमें छोड़कर...। ये शब्द कल्पना के दिल में तीर की तरह चुभे जो फिर से उसके सारे ज़ख्मों को ताजा कर गए।चुपचाप कल्पना अपने कमरे में चली गई। दूसरे दिन जब सुबह स्नेहा बाहर निकली तो बरामदे में कल्पना सोफे पर नहीं थी जो हर रोज अक्सर वहीं हुआ करती थी। फिर स्नेहा ने उसके कमरे में देखा तो कल्पना वहां भी नहीं थी। सामने दीवार पर ध्यान गया तो वरुण की तस्वीर भी दीवार पर नहीं थी। स्नेहा को कुछ-कुछ अंदाज़ा हो गया कि शायद कल्पना घर छोड़कर जा चुकी है। मन ही मन स्नेहा खुश हो गई पर उसे इस बात की चिंता थी कि कहीं वैकल्प के मन में फिर से मातृ प्रेम जाग उठा और वह फिर से उसे लाकर उसके माथे मड़ देगा? यही सोच असमंजस में पड़ी स्नेहा कल्पना के कमरे से बाहर निकल आई। परन्तु आखिर सवाल तो मन में आता ही है न कि कल्पना आखिर गई कहां...? शायद फिर से चली गई होगी अपने चौथे जीवन की तलाश में और ढूंढ रही होगी अपना आश्रय। (समाप्त)