अपने भाषणों के कारण आलोचना का केन्द्र बनते हैं मोदी

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषणों के नोट्स तैयार करने वाले अक्सर प्रधानमंत्री के मुंह से कुछ न कुछ ऐसा कहलवा देते हैं,  जो तथ्यों से परे होता है और लोग उनका मज़ाक उड़ाते हैं। मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने हाल ही के संबोधन में वाई2के का जिक्र किया। उन्होंने इस संकट से निपटने में भारत इंजीनियरों और उस समय की अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार की भी तारीफ  की। जबकि हकीकत यह है कि वाई2के नाम के जिस संकट का जिक्र उन्होंने किया,वह फर्जी संकट था और इसकी पोल बहुत पहले ही खुल चुकी है। समूची दुनिया के लिए यह बड़ी शर्मिंदगी की बात थी और उस संकट के फर्जी साबित होने के 20 साल बाद भारत के प्रधानमंत्री का उसका जिक्र करना भारत के लिए शर्मिंदगी की बात है। असल में वह फर्जी संकट नई सदी की शुरुआत को लेकर था। कहा गया था कि 31 दिसम्बर 1999 की आधी रात के तुरंत बाद सन् 2000 की शुरुआत होगी तो सारे कंप्यूटर अपने आप बंद हो जाएंगे। उस संकट से निपटने के नाम पर खरबों डॉलर खर्च हुए थे। भारत में भी इस पर अंदाजन 1800 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। बाद में लंबी चौड़ी जांच में साबित हुआ कि कैसे यह संकट पूरी तरह से फर्जी तौर पर पैदा किया गया था। इसके बावजूद प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्र के नाम संबोधन में और कोरोना वायरस से भारत की लड़ाई में इसका जिक्र किया तो इसका क्या मतलब निकाला जाए? क्या उनको वाई-2के संकट की असलियत नहीं पता है या भारत उसी अंदाज में कोरोना से लड़ रहा है?
लाल किले के कार्यक्रम पर भी सवाल
कोरोना महामारी के चुनौती के मद्देनज़र एक सवाल यह भी खड़ा हो गया है कि इस साल स्वतंत्रता दिवस का कार्यक्रम कैसे होगा। स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री लाल किले से भाषण देते हैं और बडी संख्या में गणमान्य, विदेशी मेहमान, अधिकारी, स्कूली बच्चे इसमें शामिल होते हैं। यह वर्ष में एक बार होने वाला बेहद विशिष्ट कार्यक्रम होता है। अगर कोरोना वायरस का संक्रमण इसी तरह फैलता रहा तो बड़े सार्वजनिक कार्यक्रम का आयोजन कैसे होगा। स्वतंत्रता दिवस कार्यक्रम में अभी तीन महीने का समय है, इसलिए अभी थोड़े समय तक इंतज़ार किया जा सकता है। अगर जून के अंत तक भी वायरस का संक्रमण कम हो जाता है तो इसके आयोजन में कोई दिक्कत नहीं आएगी लेकिन अगर फिर भी वायरस का संक्रमण जारी रहता है तो फिजीकल डिस्टैंसिंग के नियमों का पालन करते हुए कम मेहमानों के साथ इसका आयोजन होगा। वैसे भी लाल किले से प्रधानमंत्री का भाषण देश और दुनिया भर के लोग टेलीविजन के जरिए ही देखते, सुनते हैं। इसलिए मेहमानों की संख्या घटा कर, उनके बैठने की पारंपरिक व्यवस्था को बदल कर और बच्चों को बुलाए बगैर भी इसका आयोजन हो सकता है। 
धर्म आधारित मैपिंग के खतरे 
भारत सरकार बहुत बड़ा जोखिम लेने जा रही है। खबर है कि सरकार कोरोना वायरस से संक्रमित हुए लोगों की धर्म आधारित मैपिंग करने जा रही है। गौरतलब है कि जब तबलीगी जमात का मामला सामने आया था तो पूरे देश में टीवी चैनलों और सोशल मीडिया के जरिए योजनाबद्ध तरीके से कोरोना संक्रमण के लिए मुसलमानों को ज़िम्मेदार ठहराया जाने लगा था। इसलिए अगर सरकार पूरे देश में धर्म के आधार पर संक्रमितों की मैपिंग करेगी तो इस तरह के सामाजिक विभाजन का खतरा बढ़ जाएगा। अगर इलाज और दूसरी सुविधाओं के लिए सरकार इस तरह की मैपिंग कर रही है तब भी इसके आंकड़ों के गलत इस्तेमाल का खतरा है। वैसे दुनिया भर के देशों ने नस्ल और रंग के आधार पर मैपिंग की हुई है। सबको पता है कि अमरीका में अफ्रीकी मूल के लोग सबसे ज्यादा संक्रमित हैं और उसके बाद भूरे यानी दक्षिण एशियाई, हिस्पैनिक आदि का नंबर है। खाड़ी के देशों में और सिंगापुर में भी इस तरह की मैपिंग हुई है लेकिन इसके बावजूद विकसित देश इस बात का ख्याल रख कर रहे हैं कि इस आधार पर किसी के साथ भेदभाव न हो। पर क्या भारत में ऐसा संभव है? भारत में अगर आधिकारिक रूप से यह डाटा आ गया कि आबादी के अनुपात में अल्पसंख्यकों के संक्रमित होने की दर सबसे अधिक है तो बहुत गड़बड़ होगी। मगर लगता है कि सरकार इसमें राजनीतिक लाभ की गुंजाइश देख रही है और इसलिए इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा रहा है।
चलते-चलते
कोरोना महामारी की चुनौतियों का सामना करने और आम लोगों को राहत पहुंचाने की दिशा में आत्मनिर्भरता के रास्ते पर चलते हुए सरकार का मास्टर स्ट्रोक रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा 49 फीसद से बढ़ा कर 74 फीसद करने, अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र को निजी क्षेत्र के लिए खोलने तथा छह और हवाई अड्डे बेचने का फैसला।