राहत पैकेज के नाम पर क्या परोस रही है सरकार ?

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने क्रमिक रूप से पांच प्रैस कान्फ्रैंसों के दौरान एक धारणा को विशेष तौर पर रेखांकित करते हुए कहा कि सरकार का ध्यान लोगों का सशक्तिकरण करने पर केन्द्रित है ताकि वे अपने दम पर खड़े होने के समर्थ हो सकें। अधिकार समझ कर सरकार से कोई उम्मीद न की जाए। हालांकि उन्होंने साथ यह भी कहा कि जहां जरूरत होगी, वहां मदद उपलब्ध की जाएगी और की भी जा रही है। 
प्रैस कान्फ्रैंस में की गई 50 से अधिक घोषणएं भी सशक्तिकरण के इसी बिन्दु के आस-पास ही केन्द्रित थीं और कहा गया कि दुनिया भर में भारत की छवि अलग-थलग देश के रूप में नहीं बल्कि आत्म-विश्वास भरपूर देश के रूप में उभरेगा। 
परंतु छवि उभारने की इस कवायद में कुछ मुद्दे गुम से हो गये जिनमें पैदल सड़कें नाप रहे, एक राज्य से दूसरे राज्य में दाखिल होने के लिए परेशान हो रहे मज़दूरों का मुद्दा भी शामिल है। इसके अतिरिक्त ‘अन्नदाता’ का फीता संभाले फिरता किसान ‘रोज़गार सृजनकर्ता’ का दम भरने वाले सूक्ष्म, छोटे तथा दरम्याने उद्योग तथा चुप-चाप मसला जा रहा मध्यम वर्ग। 
इन सभी वर्गों के मुद्दे 5 दिनों के लगभग 8 घंटे के वित्त मंत्री के सम्बोधन में अपना-अपना हिस्सा ढूंढने हेतु संघर्ष करते नज़र आए। ऐसा नहीं है कि इन वर्गों को वित्त मंत्री के भाषणों में स्थान नहीं मिला। हम क्रमिक रूप से की गई प्रैस कान्फ्रैंसों पर नज़र डालें तो सभी वर्गों का ज़िक्र नज़र आया परंतु ‘मुद्दे’ गायब थे। 
नाकाम रही सरकार
वित्त मंत्री की पहली प्रैस कान्फ्रैंस मुख्य रूप से सूक्ष्म, छोटे तथा दरम्याने उद्योगों एम.एस.एम.ई. पर ही केन्द्रित थी। केन्द्र ने 45 लाख उद्योगों को 3 लाख करोड़ रुपए के कर्जे देने की घोषणा की, जिस पर सरकार 100 प्रतिशत गारंटी देगी। ये 45 लाख उद्योगों पूरे एम.एस.एम.ई. क्षेत्र का सिर्फ 0.75 फीसदी हिस्सा हैं। इस के अतिरिक्त नकदी के संकट का सामना कर रहे उद्योगों के लिए 20,000 करोड़ के कर्जे, जिनमें सरकार की गारंटी आंशिक होगी और सामर्थ्य वाले एम.एस.एम.ई. के लिए 50 हज़ार करोड़ रुपए की व्यवस्था की घोषणा की गई है।
केन्द्र की घोषणाओं में एम.एस.एम.ई. की परिभाषा का दायरा बढ़ाते हुए एक करोड़ रुपए के निवेश तथा 5 करोड़ का कारोबार करने वाली कम्पनियों को भी शामिल करने तथा 200 करोड़ रुपए की खरीद तक के लिए वैश्विक टैंडर न मंगवाए जाना भी शामिल किया गया है। 
असाधारण हालात, असाधारण समाधान की मांग करते हैं। देश के प्रत्येक वर्ग को इस चुनौतीपूर्ण समय में कुछ असामान्य प्रयासों की उम्मीद थी। यह उम्मीद उस समय से थी जब मार्च में वित्त मंत्री ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण पैकेज की घोषणा करने के बाद कहा था कि जल्द दी अन्य घोषणाएं की जाएंगी। 50 दिनों की ‘टलती’ उम्मीद एक बार फिर उस समय शिखर पर पहुंच गई जब 12 मई को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 20 लाख करोड़ रुपए के विशेष पैकेज की घोषणा की। हालांकि इसमें भी प्रधानमंत्री ने अपने रवायती अंदाज़ को कायम रखते हुए 20 लाख करोड़ रुपए का सिर्फ खाका ही खीचां। खाके को भरने की जिम्मेदारी वित्त मंत्री के सुपुर्द कर दी। 
आर्थिक राहत पैकेज को आम तौर पर तीन हिस्सों में बांटा जाता है। स्नद्बह्यष्ड्डद्य अर्थात राजस्व, रूशठ्ठद्गह्लड्डह्म्4 अर्थात मुद्रा संबंधी तथा स्नद्बठ्ठड्डष्द्बड्डद्य अर्थात वित्तीय। राजस्व (स्नद्बह्यष्ड्डद्य ) हिस्सा वह होता है जो बजट से सीधा अर्थ-व्यवस्था तक पहुंचता है। मुद्रा्र (रूशठ्ठद्गह्लड्डह्म्4) हिस्से की कमान देश में सर्वोच्च बैंक के पास होती है, जिससे वह समूचे प्रबंध में नकदी प्रवाह सुनिश्चित बनाए रखता है, जबकि वित्तीय (स्नद्बठ्ठड्डष्द्बड्डद्य) हिस्से में कर्जे संबंधी कार्यों को आसान बनाया जाता है। इस पैकेज में राजस्व हिस्से की भूमिका अन्य दो के मुकाबले काफी कम है। यही कारण है कि उक्त वर्गों के सरोकार वाले मुद्दे घोषणाओं को शोर में कही गुम हो गए। 
कर्जा संकट का समाधान नया कर्ज
दूसरी प्रैस कान्फ्रैंस मज़दूर, रेहड़ी-फड़ी वालों, छोटे कारोबारियों तथा किसानों को ‘समर्पित’ थी जिसमें मज़दूरों को 2 महीने तक बिना राशन कार्ड तथा किसी भी अन्य सरकारी मान्यता प्राप्त कार्ड के भी मुफ्त राशन देने की घोषणा की गई थी। यकीनन यह घोषणा एक राहत भरी घोषणा है। इसके अतिरिक्त रेहड़ी, फड़ी वालों, छोटे कारोबारियों, किसानों के लिए कर्जे की व्यवस्था की घोषणा भी की गई। 
कर्जों की इन घोषणाओं की भरमार में एक बात ध्यान देने वाली है कि भारतीय रिज़र्व बैंक (आर.बी.आई.) के आंकड़ों के मुताबिक बैंक कर्जों की मांग इस समय 27 वर्षों में सबसे निचले स्तर पर है। बैंक व कम्पनियां दोनों ही ‘ट्विन बैलेंस शीट’ के संकट अर्थात जहां बैंक तथा कम्पनियों दोनों के बही-खातों में कर्जा ही उभर रहा हो, के साथ दो-चार हो रही हैं। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि किसी भी अर्थ-व्यवस्था में कर्जा संकट का समाधान नया कर्जा देना नहीं है। पस्त हुई अर्थ-व्यवस्था के लिए कर्जे को संजीवनी माने बैठी सरकार को यह भी विचार करना होगा कि क्या कम्पनियां, किसान, छोटे रेहड़ीदार कर्जा लेना भी चाहते हैं? जो किसान अपने कर्जे तथा बढ़ रहे ब्याज के कारण पहले ही आत्महत्याएं कर रहा है,   क्या वह और कर्जा लेगा? जो कारोबारी इस चिंता में है कि वह पिछला कर्जा केसे अदा करेगा, जिसे सरकार मूल राशि चुकाने के लिए समयबद्ध छूट दे रही है परंतु इस समय के दौरान ब्याज उसे देर-सवेर अदा करना ही पड़ेगा, जो कि इस छूट के समय भी कर्जे की कुल राशि में जुड़ता रहेगा। ऐसा कारोबारी नया कर्जा क्यों लेगा जबकि उसे यह भी नहीं पता कि अगले 6 महीने में उस के उत्पादन की कोई मांग होगी या नहीं?
                                       (शेष कल)