भारतीय मुसलमानों पर मेहरबान धर्म-निरपेक्षता और संविधान

तत्कालीन देश के उप-राष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी जब 2017 में पद मुक्त हुए तब उन्होंने जो पहला वक्तव्य दिया उससे ही धर्म-निरपेक्षता पर एक चोट पड़ी। उन्होंने कहा कि देश में मुसलमान ख़ौफ में जी रहे हैं जब बिहार में चुनाव होने वाले थे तब अवार्ड वापसी के नाम से देश में सांप्रदायिकता को हवा दी गई थी। इसी के प्रभाव में एक पुस्तक अलीगढ़ में पूर्व उप-कुलपति द्वारा प्रकाशित हुई जिसका नाम था सरकारी मुसलमान। अब अरुणधति राय ने पुन: सोई कला जगाने का प्रयास किया, जिसके प्रभाव में देश के 100 बुद्धिजीवी एवं ऊंचे पदों पर रहे पूर्व नौकरशाहों ने एक पत्र केन्द्र सरकार तथा उत्तर प्रदेश और दिल्ली की राज्य सरकार को भेजा जिसके पक्ष में चुनाव हबीब उल्ला ने खुल कर यह बात कही कि उनका यह पत्र मुसलमानों के पक्ष में है। हैरानी की बात तो यह है कि आज मोदी सरकार को दूसरी बार बने एक वर्ष के करीब हो रहा है। यह बुद्धिजीवी, नौकरशाह और अवार्ड वापसी गैंग के लोग इतनी देर खामोश कैसे रह गए? जबकि इन नौकरशाहों को भली भांति ज्ञात होगा कि जस्टिस रजेन्द्र सच्चर ने मुसलमानों की दयनीय स्थिति पर एक रिपोर्ट दी थी तब इन लोगों ने उस रिपोर्ट पर तत्कालीन यू.पी.ए. सरकार को पग उठाने के लिए सुझाव क्यों नहीं दिए। आज जब देश एक महामारी से बच निकलने के लिए संघर्ष कर रहा है तब इन 100 बुद्धिजीवियों और नौकरशाहों ने पत्र लिखकर सरकार का ध्यान बेवजह बांटने का प्रयास तो नहीं किया? सन् 2004 में कुछ कांग्रेसी नेता मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष मौलाना सैयद मोहम्मद रवि हसन नदवी से मिले थे। कहा जाता है कि इसमें मुसलमानों में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर कांग्रेस के विचार स्पष्ट किए गए थे। इसके पीछे जो हकीकत सामने आई वो यह कि कांग्रेस मुसलमानों के अपने खोए आधार को वापिस हासिल करना चाहती है। उसके लिए मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए जितने पग उठाए जा सकते थे वो उठाने का वादा किया, परन्तु सन् 1975 में जब देश में आपात्काल लागू हुआ और तुर्कमान गेट के समीप रहते मुसलमानों पर नसबंदी के लिए जबरन बंध्याकरन किया गया तब मुसलमानों ने कांग्रेस का दामन छोड़ दिया। यही बात कांग्रेस को बड़े लम्बे समय तक चिपटी रही क्योंकि उस समय के पश्चात् मुसलमानों के वोट बैंक पर छीना झपटी की हालत पैदा हो गई थी। समाजवादी दल, बहुजन समाज पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल इत्यादि ऐसे कई दल मुसलमानों की वोटों के लिए उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने लगे थे, जिससे कई राज्यों में कांग्रेस बुरी तरह पराजित होने लगी। दिल्ली माइनारिटी कमिशन के अध्यक्ष जनाब जाफसल इस्लाम ने राख में दबी चिंगारी को हवा देकर शोला बनाने का प्रयास किया है। शायद वो भूल गए कि शाहीन बाग में मुस्लिम महिलाओं द्वारा साढ़े तीन महीने तक लगा धरना केवल इसलिए जारी रहा कि संविधान शांतिपूर्वक ढंग से सत्याग्रह करने की इजाज़त देता है, परन्तु पूर्व दिल्ली में दंगा भड़काने की इजाज़त संविधान की किस धारा ने दी? बहुत सी कीमती जानें और आर्थिक नुकसान को जाया होते देखा गया जबकि उन्हीं दिनों अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अपने परिवार सहित दिल्ली में थे। क्या इसके पीछे कोई साजिश थी? जबकि देश में मदरसों के लिए हज़ारों उर्दू-फारसी के शिक्षक भर्ती हो चुके थे। हैदराबाद और उत्तर प्रदेश में उर्दू विश्वविद्यालय भी बना दिए गए क्या कारण है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी जो एक हिन्दू राजा की दान में दी गई ज़मीन पर बनी और दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में अजीब-सा माहौल पैदा किया जाने लगा। क्या यह धर्म-निरपेक्षता की आड़ में सांप्रदायिकता का मज़ाक नहीं उड़ाया जा रहा था। ज़ाकिर नायक जैसे कट्टरवादी नेताओं का पक्ष लेने वाले आज रूप-स्वरूप बदल कर सरकार को कोरोना वायरस की रोकथाम में मिल रही सफलता पर ग्रहण लगाने की चेष्टा कर रहे हैं। अल्प-संख्यकों के कल्याण के लिए देश वही कर रहा है जो संविधान में लिखा है। संसद में पारित नागरिकता संशोधन कानून का विरोध बिना सोचे-समझे करना कहां की बुद्धिमता कही जा सकती है। क्या देव बंधी और बरेलवी मौलानाओं ने सौहार्द कायम करने के लिए कभी कोई ़फतवा जारी किया? कटघरे में धर्म-निरपेक्षता खड़ी कर देने से संविधान का पक्ष मजबूत नहीं होता। जब यह लोग शिखर पर थे तब इन्होंने कभी सोचा होगा कि मोदी की लोकप्रियता विश्व में इतनी क्यों बढ़ रही है। यह बात तो सभी को ज्ञात है कि देश के कुछ नेता भारत में मजबूर सरकार चाहते हैं मजबूत सरकार नहीं क्योंकि मजबूत सरकार निर्णय करने में सक्षम हो जाती है। कुछ नेताओं को यह बात कतई पसंद नहीं। दिल्ली से एक पत्रिका ‘बेटी’ के नाम से निकला करती थी जिसकी सम्पादिका सख्त खातून सिद्दीकी थीं वहीं 200 से अधिक पन्नों वाली पत्रिका जो देवनागरी लिपि में उर्दू और फारसी भाषा में प्रकाशित होती थी और जिसके मुख्य सम्पादक एवं सरपरस्त थे मौलाना अहमद मुस्तफा सिद्दीकी ‘राही’, इसमें मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं को बहुत उजागर किया जाता था। हम धर्म-निरपेक्षता और संविधान की ओट लेकर अराजकता जैसी स्थिति पैदा करने वाले मुस्लिम बुद्धिजीवियों एवं धर्म गुरुओं से केवल इतना कहना चाहते हैं कि फिर उसी जानी-पहचानी दुविधा से बाहर निकलें जो आज से 15 वर्ष पूर्व थी।