मज़दूर वर्ग की यह अनदेखी क्यों ?

कोविड-19 की महामारी ने भारत के आम नागरिक को जहां एक ओर सेहत के मायने, पढ़ाई लिखाई की अहमियत और रोजगार न रहने और भूख लगने की मजबूरी होने पर भिखारी की तरह हाथ फैलाने की बेबसी को उजागर किया है, वहां दूसरी ओर सरकारों की उदासीनता से लेकर उनकी नीतियों की खामियां, नेताओं के ढकोसले और साधन संपन्न अर्थात पैसे वाले कारखाना मालिकों, ठेकेदारों और उद्योगपतियों की उन लोगों के दर्द को न समझकर मुंह फेर लेने की हकीकत दिखाई है। यहां तक कि उन लोगों की मानसिकता का भी पर्दाफाश किया है जो इनसे काम लेते वक्त वे उन्हें अपने परिवार का सदस्य तक कहने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं करते थे और उन्हें बरगलाने से लेकर उनका शोषण तक करते रहते थे तथा सही मजदूरी तक न देने का कोई न कोई बहाना ढूंढते रहते थे।
इनकी पहचान क्या है ?
आखिर ये कौन लोग हैं, इनका जन्म किन परिस्थितियों में हुआ और कैसे इनके परिश्रम से फलने फूलने वालों के लिए ये अचानक प्रवासी मज़दूर बन गए जिनका कोई संरक्षक नहीं। कानून तक खामोश है और ये पैदल ही या जैसे तैसे किसी भी सवारी का जुगाड़ कर अपने उस आशियाने की तरफ  लौट रहे हैं जिसे वे बरसों पहले किसी के अच्छी जिन्दगी की उम्मीद में छोड़ आए थे। 
श्रमिक कानूनों का खोखलापन
हमारे देश में आज जो भी मज़दूरों, कामगारों को लेकर कानून दिखाई पड़ते हैं, उनके बनने की शुरुआत हो चुकी थी। इसका मतलब यह है कि सरकार से लेकर मिल मालिकों, उद्योगपतियों तक को यह पता था कि इन लोगों को किसी भी तरह अपने पास रखना न केवल ज़रूरी है बल्कि यदि इनका ख्याल न रखा तो ये अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा।इसी के साथ सच यह भी था कि सरकार और देश के सभी संसाधनों पर इनका कब्जा था और ये ऐसे कानून बनवाने में सफल हो गए जिससे सरकार भी खुश हो जाए और इनके लिए काम करने वाले मज़दूर भी अपने मालिकों के एहसानमंद हो जाएं। ये अमीर लोग और सरकार इन मेहनतकश, ईमानदार और वफादारी को अपना ईमान मानने वालों को दो टुकड़ों में बांटने में कामयाब हो गए जिन्हें हम संगठित और असंगठित क्षेत्र के नाम से जानते हैं।
यह कैसा भेदभाव ?
इसका मतलब यह हुआ कि सरकार और उसके उद्यमों में काम करने वाले, बैंकों और निजी क्षेत्र के बड़े उद्योगों के कामगार और राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चलने वाले व्यापार के लिए बनाई गई कंपनियों के कर्मचारी तो सभी प्रकार से कानून की सुरक्षा के दायरे में आ गए जो केवल लगभग एक चौथाई थे लेकिन बाकी बचे लोग असंगठित क्षेत्र के मान लिए गए जिनमें दिहाड़ी मज़दूर, ठेके पर काम करने वाले, निजी दफ्तरों के बाबू, चपरासी, सफाईकर्मी, ड्राइवर, घरेलू नौकर, रसोइा, प्लम्बर, इलेक्ट्रीशियन, कुली, माल ढोने वाले, दुकानों के सेल्समैन, छोटा मोटा कोई भी काम धंधा जैसे सब्जी या किराने का ठेला लगाने वाले और इसी तरह के काम जिन्हें अक्सर छोटा या मामूली समझा जाता है, उन्हें करने वाले कुल श्रमिक आबादी के तीन चौथाई लोग थे।इनके लिए छुट्टी का मतलब वेतन न मिलना, बीमार होने पर भी या तो ड्यूटी पर जाना वरना दिहाड़ी कटना और किसी भी तरह की कानूनी सुरक्षा न होना है। हैरानी की बात यह है कि ये ही लोग नोटबंदी के दौरान अपने मालिकों को नए नोट लाकर देते रहे।
शर्मनाक अमानवीयता
विडम्बना यह है कि चाहे औद्योगिक मंदी का दौर हो या आज की तरह महामारी का सामना हो, सबसे पहले वेतन में कटौती से लेकर छटनी तक इन्हीं लोगों की होती है। यह न केवल किसी भी सरकार और समाज के लिए लज्जा की बात है बल्कि शर्मनाक भी है कि इन परिश्रमी और खुद्दार लोगों को इस आपदा के समय दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज होना पड़ा, लाइन में लगकर दाल रोटी लेनी पड़ी और जब सब्र का बांध टूट गया तो अपना डोली डंडा, कनस्तर, बिस्तर उठाकर पैदल ही सैंकड़ों-हज़ारों मील अपने उस घर की तरफ  निकल पड़े जिसे बरसों पहले वीरान कर आए थे।देश आज़ादी से लेकर आज तक किसी भी प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, श्रम मंत्री और मुख्यमंत्री, राज्यपाल से लेकर राष्ट्रपति ने असंगठित क्षेत्र की इतनी विशाल आबादी के लिए न तो कोई कानून बनाने की पहल की और न ही श्रमिक मजदूरों की नेतागिरी के बल पर अपनी रोटियां सेंकने वाले नेताओं ने कोई ऐसा आंदोलन किया जिससे इन्हें अपनी नौकरी, रोज़गार या व्यवसाय की कानूनन सुरक्षा मिल सके।
अकेलेपन का एहसास
जैसा कि नाम से ही पता चलता है कि ये लोग असंगठित हैं अर्थात लड़ाई में अकेले हैं। क्या सरकार का यह कर्तव्य नहीं हो जाता कि इनके लिए इस तरह के कानून बनाए और प्रशासन तथा व्यवस्था को उनके लागू करने के लिए तैयार करे जिससे किसी भी मुसीबत, प्राकृतिक आपदा और महामारी के समय उनका मान सम्मान और जीवन सुरक्षित रह सके। किसी भी समाजसेवक, नेता और यूनियन लीडर के लिए वर्तमान समय से बेहतर और कौन सा वक्त आएगा जिसमें वे अपनी नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन कर सकें और इस विशाल आबादी की भलाई के लिए सरकारी हो या निजी क्षेत्र, सब को इस वर्ग की कभी भी अपेक्षा न करने के लिए न केवल कानूनन मजबूर कर सकें बल्कि इनकी कीमत का अंदाज़ा भी करा दें कि अगर इनके साथ कोई छेड़छाड़ या अमानवीय हरकत हुई तो उसकी जिम्मेदारी तथाकथित सभ्य और संपन्न समाज की होगी और जिसका खामियाजा और दंड उन्हें ही भुगतना होगा।यह कोई मज़दूर, वर्ग या सर्वहारा आंदोलन नहीं होगा बल्कि मानवीयता का संरक्षण और मनुष्य के जीने के अधिकार का ही प्रतिपादन होगा जिसमें सब के साथ न्याय और समानता के सिद्धांत पर चलने का संकल्प होगा।