मज़दूर हुए मजबूर

जैसे ही कोरोना वायरस ने भारत में अपने पांव पसारे, केन्द्र सरकार ने जनता कर्फ्यू घोषित कर दिया। यह कहा गया कि जो जहां है, वहीं रहे। लेकिन मनमानी करने वाले लोगों ने सरकार के आदेशों की परवाह न करते हुए, वह सब किया जो नहीं करना चाहिए था। सबसे बड़ा दिशा-निर्देश था कि सामाजिक दूरी बनाए रखें, लेकिन कई दुकानों के बाहर एक भीड़ जमा किए नज़र आए। फिर धीरे-धीरे हालात पर नज़र रखते हुए सरकार ने लॉकडाऊन के आदेश दिए। मज़दूरी करके कमाने वालों को सरकार ने आर्थिक सहायता की घोषणा की। कुछ लोगों का जो मजदूरी करते हैं का कहना है कि उन्हें भरपूर राशन मिला, लेकिन कुछ एक का कहना है कि उन्हें कुछ नहीं मिला। लॉकडाऊन में किराये के घरों में रह रहे इन मज़दूरों की हालत और खस्ता हो गई। एक तरफ मकान मालिक किराया मांगते रहे तो दूसरी तरफ इनके पास पेट भरने के लिए पैसे भी नहीं थे। मज़बूर हुए मज़दूरों ने अपने-अपने गांव जाना शुरू कर दिया। कोई पैदल निकल पड़ा तो कोई साइकिल, बेलगाड़ी व रेहड़ी इत्यादि पर।कुछ एक राज्यों ने इन मज़दूरों को इनके गांव पहुंचाने के लिए खास तौर पर बसें चलाईं लेकिन कुछ राज्यों ने कोई प्रबंध नहीं किया। हाल ही में लुधियाना की काकोवाल रोड पर मज़दूरों ने रास्ता जाम किया और विरोध जताया कि उन्हें घर भेजने का कोई प्रबंध नहीं किया जा रहा। कुछेक यह कहते भी सुनाई दिए कि रोटी खाने को पैसे नहीं, किराये को पैसा नहीं और गांव सरकार जाने का प्रबंध नहीं कर रही। इन मज़दूरों ने कहा कि यहां इस महानगर में रहकर क्या करेंगे? कोरोना से तो चाहे न मरें पर भूख से मर जाएंगे।
वायरस का भयावह मंजर इन सब को इतना नहीं डरा रहा जितना कि बुनियादी ज़रूरतें। विदेशों की तरह भारत में लोगों की कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है। मज़दूर जिनकी नौकरियां भी चली गई हैं, के पास शायद और कोई विकल्प नहीं बचा, बजाए इसके कि वे गांव वापिस चले जाएं। मजबूर हुए मज़दूर सड़क पर निकल पड़े हैं, क्योंकि मुंशी प्रेम चंद ने ठीक ही कहा था :

‘अमीरी की कब्र पर पनपी हुई
 ़गरीबी बड़ी ज़हरीली होती है।’