उर्दू शायरों की जन्नत और जहन्नुम

नर्क और स्वर्ग क्या है, इसके बारे में सभी धर्मों ने अपने-अपने विचार रखे हैं। कोरोना वायरस और तालाबन्दी बारे भी लोगों की एक राय नहीं है। जहां आम जनता घरों में बंद है और कष्ट भोग रही है वहीं भारत के प्रधानमंत्री कहते हैं कि इसने आत्म-निर्भरता का सबक दिया है। तालाबन्दी के नुक्सान-लाभ की बात तो पता नहीं कितनी देर चलेगी। हम समय व्यतीत करने के लिए उर्दू शायरों की जन्नत और जहन्नुम पर नज़र दोहरा सकते हैं। मिज़र्ा ़गालिब ने भी दो-टूक फैसला नहीं दिया। खुलद (जन्नत) को दिल का भ्रम कहा है और जहन्नुम को सैरगाह।  वह इससे मुनकर है भी और नहीं भी। जिन पीरज़ादों ने उसे इस धरती पर दामन नहीं पकड़ाया, उनसे खुलद अर्थात स्वर्ग में बदला लेने की बात करता है। खूबी यह है कि उसने खुद स्वर्ग की टिकट अपने-आप ही काट रखी है। उसके तीन शेयर पेश हैं :-
1. हमको मालूम है जन्नत की हकीकत, लेकिन दिल को खुश रखने को गालिब, ये ख्याल अच्छा है
2. क्यों न फिरदौस में दोजख को मिला ले या रब्ब सैर के वासते थोड़ी सी जगह और सही
3. एक परीचादे से लेंगे खुलद में हम इंतकाम 
कुदरत ए हकि से यही हूरें अगर वां हो गईं।
जहां तक जन्नत की ज़िन्दगी पर व्यंग्य कसने का संबंध है द़ाग देहलवी स्वर्ग की अप्सराओं से बिल्कुल ही प्रभावित नहीं। वह बेकार हो चुकी हैं। ऐसे स्वर्ग से उसको क्या लेना है जहां की अप्सराओं की आयु लाखों वर्ष है :-
ऐसी जन्नत का क्या करे कोई
जिस में लाखों बरस की हूरें हों
जन्नत को अपने व्यंग्य का विषय बनाने वाले अन्य भी  शायर हैं। मौलाना अब्दुल सलाम नकवी जन्नत से स्वयं ही बाहर निकल आते हैं जब उनको पता चलता है कि वहां शेख को अप्रसरा मिल गई है। उनका विचार है कि इससे अप्सराओं का अत्यंत अपमान हुआ है।
मैंने जन्नत ही को छोड़ा, जो मिली शेख को हूर
मुझ से देखा न गया हुसन का रुसवा होना
शौक बहराइच की जन्नत पर दलील का कोई मुकाबला नहीं। उन्होंने उस कथा की शरण ली है जो कहती है कि मनुष्य को भगवान ने उसकी नालायकी के कारण स्वर्ग से धक्का मार कर बाहर फैंक दिया था। वह धक्के से स्वर्ग की दहलीज़ पार कर सकता है :
मैं घुस जाऊंगा जन्नत में, खुदा से बस यही कह कर
यहीं से आये थे आदम, ये मेरे बाप का घर है।
सीधा और स्पष्ट व्यंग्य कसने में हैदराबादी का कोई मुकाबला नहीं :
मैं जिसको लगा दूं वही जन्नत में चला जाये
लाया हूं नशा जूता, मस्जिद से चुरा के
उर्दू शायर और शायरी ज़िन्दाबाद।
सूनी सड़कों पर साहिबां और मिज़रा
कोरोना वायरस और तालाबन्दी ने जरनैली सड़क का आवागमन ठप्प करवा कर पीलू का मिज़र्ा स्मरण करवा दिया है। साहिबां के मिलाप में आने वाली सम्भावित मुश्किलों को दूर कर वह मिज़रा के लिए रास्ता खोलता है :
कुत्ती मेरे फकीर दी, जो चऊं-चऊं नित करे
पंज सत्त मरन गवांढनां ते रहंदियां नू ताप चढ़े
गलियां हो जाण सुंवियां विच मिज़रा यार फिरे
मुझे आम और मुख्य सड़कों के सुनसान होने की तो कोई ़खबर नहीं परन्तु चंडीगढ़ में कर्फ्यू हटने पर जब सुबह सैर के लिए निकला तो गलियां सुनसान थी और पांवों के नीचे वृक्षों के पत्ते और हर तरह का कूड़ा-कबाड़ कदम-कदम पर देखने को मिला। दिन के समय अपने भांजे अमरप्रीत लाली से टैलीफोन पर सड़कों का हाल पूछा तो पता चला कि वहां शहर की गलियां से भी बुरी स्थिति है।

अंतिका...
(अम्मार कंबरी)
यहां कोई भी सच्ची बात अब मानी नहीं जाती
मिरी आवाज़ इस बस्ती में पहचानी नहीं जाती
बढ़ो आगे करो रौशन दिसाओं को चिताओं से
अकारथ दोस्तो कोई भी कुर्बानी नहीं जाती 
महल है, भीड़ है, मंदिर है, मस्जिद है, मशीनें हैं
मगर फिर भी शहर से दूर वीरानी नहीं जाती
कहीं बोतल, कहीं सागर, कहीं मीना, कहीं साकी
ये मह़िफल ऐसी बिखरी है पहचानी नहीं जाती
ये झूटे आश्वासन आप अपने पास ही रखिये
दहकती आग पे चादर कभी तानी नहीं जाती
ज़ुबां बेची, कला बेची, यहां तक कल्पना वेची
नीयत फनकार की अब कंबरी जानी नहीं जाती।