श्रम कानूनों में बदलाव का संकट

कोरोना महामारी के प्रकोप-काल के दौरान राज्य सरकारों द्वारा अपने-अपने श्रम कानूनों में अपनी सुविधानुसार परिवर्तन अथवा संशोधन किये जाने के यत्नों ने नि:सन्देह रूप से देश भर के श्रमिक वर्ग को चिंतित एवं प्रभावित किया है। पंजाब में पिछले दिनों से इंटक, एटक और सीटू समेत लगभग डेढ़ दर्जन संगठनों की ओर से रोष प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू किया गया है। इन संगठनों, किसानों, मज़दूरों, कर्मचारियों, श्रमिकों और अन्य सभी प्रकार के कामगर वर्गों के प्रतिनिधि शामिल हैं। श्रम कानूनों में बदल और सुधार की प्रक्रिया के तहत सरकारों की ओर से एक ओर जहां श्रमिकों एवं कामगरों के काम करने की अवधि को पूर्व की आठ घंटों  से बढ़ा कर 12 घंटे किया जा रहा है, वहीं उन्हें अतीत में मिलने वाली सुविधाओं पर भी अंकुश लगाये जाने का प्रस्ताव है। नि:सन्देह प्रदेश सरकारों का यह प्रस्ताव किसी भी मानवीय धरातल पर उचित करार नहीं दिया जा सकता। कोरोना महामारी ने अभी तक जिस एक वर्ग को सर्वाधिक प्रभावित किया है, वह श्रमिक एवं कामगर वर्ग ही है। इस वर्ग में भी असंगठित क्षेत्र के मजदूर की स्थिति चक्की के दो पाटों में पिसने जैसी बनी है। दूसरी ओर संगठित वर्ग के कामगर और मज़दूर भी बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं। उनके रोज़गार के अवसर कम हुए हैं, अथवा छिन गये हैं। सुबह-शाम कमा कर खाने वाले इस वर्ग की समस्याओं और कठिनाइयों में कोरोना-काल ने बड़े स्तर पर इज़ाफा किया है। इस कारण उन्हें सरकारों और समाज की ओर से राहत एवं सहानुभूति दिये जाने की बड़ी आवश्यकता थी, परन्तु सरकारों की ओर से श्रम कानूनों में एकपक्षीय रूप से परिवर्तन की घोषणा से उल्टा उनके ज़ख्मों पर नमक लगाने का ही प्रयास किया गया है।
नि:सन्देह कोरोना वायरस से बचाव हेतु अपनाये गये लॉकडाउन उपाय ने लाखों लोगों को मृत्यु का ग्रास बनने से बचाया है, परन्तु लगभग दो मास की इस तालाबन्दी ने देश की अर्थ-व्यवस्था के सम्पूर्ण तंत्र को भी छिन्न-भिन्न करके रख दिया है। सरकारों के राजस्व का बड़ी सीमा तक क्षरण हुआ है, तथा प्रशासनिक कार्य-प्रणाली भी उसी गति से प्रभावित हुई है। लोगों एवं प्रशासन के काम-काज पिछड़ गये हैं। ऐसे में एक ओर जहा देश में काम-काज की गतिशीलता को बढ़ाए जाने की आवश्यकता है, वहीं राजस्व की वसूली को बढ़ाया जाना भी उतना ही लाज़िमी है। किसी भी संकट-बेला में एकजुट हो जाना और किसी भी विपरीत स्थिति का डट कर सामना करना इस देश के लोगों की परम्परा रही है। देश का जन-मानस आज भी बेशक इस परम्परा का पहरुआ बना है, परन्तु कोरोना संकट और इस कारण उपजी विपरीत स्थितियों के बहाने दशकों से चले आ रहे श्रम कानूनों में छेड़छाड़ करने और श्रमिकों/कर्मचारियों के शोषण हेतु छद्म स्थितियां पैदा किये जाने को किसी भी सूरत उचित एवं तर्क-संगत करार नहीं दिया जा सकता। राष्ट्रीय आपदा के काल में यदि जन-साधारण से देश अथवा राज्यों की सरकारों को कुछ अतिरिक्त अपेक्षा करनी भी है, तो उसके लिए श्रमिक यूनियनों अथवा कर्मचारी संगठनों के नेताओं के साथ विचार-विमर्श किया जा सकता है, परन्तु केन्द्र और कुछ राज्यों की सरकारों की ओर से किये गये इस  फैसले से समूचे देश के श्रम-जगत में रोष एवं असंतोष बढ़ने की प्रबल सम्भावना है। कोरोना महामारी के प्रकोप-काल में पीड़ित एवं प्रभावित हो रहे जन-समाज को सरकारों से अतिरिक्त  राहत एवं सहानुभूति की आवश्यकता है। कोरोना महामारी लाखों लोगों के रोज़गार खा गई। इस कारण बेरोज़गारी बढ़ी है। राजस्व बचाने अथवा बढ़ाने की आड़ में शेष कर्मचारियों एवं श्रमिकों के रोज़गार अवसरों पर अंकुश लगाना, लोकतांत्रिक धरातल पर किसी भी सरकार के लिए उचित नहीं है। 
केन्द्र एवं प्रदेश की सरकारों ने उद्योग और व्यापार क्षेत्र के लिए लाखों करोड़ रुपये के पैकेज घोषित किये हैं। राष्ट्र को पुन: विकास पथ पर अग्रसर करने के लिए ऐसे यत्नों की प्रबल आवश्यकता है, परन्तु उतनी ही बड़ी ज़रूरत श्रमिक वर्ग को संकट की गहरी खाई से उभारने की भी है। देश के श्रमिक, कामगर और कर्मचारियों को देश के विकास और हित की खातिर अतिरिक्त श्रम के लिए प्रेरित किया जा सकता है। देश का आमजन ऐसे बलिदान के लिए सदैव पेश-पेश भी होता रहा है। वर्तमान में, कोरोना महामारी का प्रकोप पूरी तरह से अभी टला नहीं है। श्रमिक समुदाय को कोरोना महा-वायरस के कारण मिली पीड़ाओं को हरने के लिए सरकारों एवं समाज द्वारा सतत् प्रयत्न किये जाने की ज़रूरत है। श्रम-कानूनों में बदलाव के इस तरह के एकपक्षीय प्रयासों से अविश्वास और संदेह की स्थितियां ही पैदा होंगी। हम समझते हैं कि सरकारें जितनी शीघ्र कर्मचारी संगठनों को अपने विश्वास में लेंगी, उतना ही देश और समाज एवं शांति के हित में होगा।