दो मास तक अवकाश पर रहीं विपक्षी पार्टियां

जैसे-जैसे कोरोना-संकट पुराना (़खत्म नहीं) होता जा रहा है, विपक्षी एकता की चर्चा होने लगी है। दो महीने बाद हिम्मत करके राहुल गांधी ने घरबंदी (लॉकडाउन) को विफल घोषित करते हुए इसके वैज्ञानिक आधार को चुनौती दे डाली है। दूसरी तऱफ सोनिया गांधी ने विपक्षी नेताओं की बैठक बुला कर केंद्र बनाम राज्य का मुद्दा उठा दिया है। यह अलग बात है कि इस बैठक में आम आदमी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने भागीदारी नहीं की। जो भी हो, यह दुहरा हमला बताता है कि विपक्षी राजनीति कोरोना के क्वारंटीन से बाहर निकलना चाहती है। यह अच्छी बात है लेकिन, हमें यह देखना-समझना भी चाहिए कि विपक्ष में यह ऊर्जा इतनी देर से क्यों पैदा हुई। राजनीतिक चिंतक सुहास पलशीकर के शब्दों का इस्तेमाल करें तो विपक्षी दल पिछले दो महीने से छुट्टी मना रहे थे। उनके नेताओं और प्रवक्ताओं की तऱफ से ज़्यादा से ज़्यादा केंद्र सरकार की ‘रचनात्मक’ आलोचना ही सामने आ रही थी। प्रवासी मज़दूरों की त़कल़ीफों से उपजी असाधारण त्रासदी को केंद्र बना कर राजनीति करने का संकल्प करने में कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल तकरीबन आठ ह़फ्ते की देर कर चुके हैं। अभी भी समस्या यह है कि राहुल गांधी द्वारा सड़क पर निकल कर प्रवासियों से बातचीत करने के चित्रों को देखने से पहली अनुभूति यही होती है कि वह संकेतात्मक राजनीति कर रहे हैं। अगर ऐसा न होता तो सारे देश में कांग्रेस कार्यकर्ता इस प्रश्न पर सड़कों पर निकल सकते थे। 
अगर ़िफल्म अभिनेता सोनू सूद पिछले डेढ़ महीने से एक व्यक्ति के तौर पर रोज़ाना हज़ार से बारह सौ प्रवासी मज़दूरों को उनके घर भेजने का स्वयंसेवी प्रयास कर सकते हैं, अगर सिखों की टोली दिल्ली की जामा मस्जिद में जा कर उस धार्मिक स्थल को ‘सैनेटाइज़’ करने की पहल कर सकती है, अगर अमृतसर के स्वर्ण मंदिर की रसोई प्रत्येक दिन बारह सौ ज़रूरतमंदों के लिए खाना बना सकती है, अगर समाज में तरह-तरह के लोग अपने सीमित संसाधनों के बावजूद ़गरीबों और बेसहारा लोगों की मदद के लिए आगे आ सकते हैं तो देश के विपक्षी राजनीतिक दल महामारी के इस विकट समय में पिछले दो महीने से हाथ पर हाथ रखे क्यों बैठे रहे? यह ठीक है कि राष्ट्रीय संकट की घड़ी में उन्हें सामान्य राजनीतिक प्रतियोगिता से बाज़ आना चाहिए था, लेकिन क्या इसका मतलब यह होता है कि उन्हें निष्क्रियता की चादर तान कर सो जाना चाहिए था? क्या उनकी राजनीतिक बुद्धि में यह नहीं आ रहा था कि केंद्र सरकार ने डिज़ास्टर मैनेजमेंट एक्ट का सहारा लेकर सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिये हैं, जबकि कोरोना विरोधी संघर्ष मुख्य तौर पर राज्यों की ज़मीन पर होना था। इस एक्ट को लागू करने से हुआ यह कि राज्यों के हिस्से में आने वाला संक्रामक बीमारियों की रोकथाम करने वाला एक्ट कारगर नहीं रह गया। नतीजे के तौर पर राज्यों से बिना पूछे सारे फैसले होने लगे। विपक्ष को अपने-आप से पूछना यह चाहिए कि उसने इस सबको समझने में इतनी देर क्यों लगा दी? 
विपक्ष की यह निष्क्रियता उस समय और भी विचित्र लगने लगती है, जब यह दिखाई देता है कि ज़्यादातर विपक्षी दलों को शासन चलाने का अच्छा-़खासा अनुभव है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी लम्बे अरसे तक सरकार में रह चुकी हैं। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल एक दशक से भी ज़्यादा सत्तारूढ़ रहा है। क्षेत्रीय दल तो अभी भी कई जगहों पर सत्ता में हैं। कांग्रेस कई प्रदेशों में राज कर रही है। यहां तक कि मार्क्सवादी पार्टी की भी एक प्रदेश में हुकूमत है। ऐसी सूरत में यह देख कर ताज्जुब होता है कि ये राजनीतिक दल भाजपा की केंद्र सरकार के सामने कोविड-19 से लड़ने का कोई वैकल्पिक मॉडल रखने की जुर्रत नहीं कर पाए। एक तरह से दो महीने तक इन दलों ने भी प्रधानमंत्री के राष्ट्र के नाम संदेशों का इंतज़ार करते रहने के अलावा कुछ नहीं किया। इनका राजनीतिक दिमाग कितना कुंद हो चुका है, इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि सरकार द्वारा घोषित पहले छोटे राहत पैकेज से लेकर बाद में घोषित बड़े राहत पैकेज के संदिग्ध स्वरूप को आड़े हाथों लेने वाले किसी श्वेत-पत्र के प्रकाशन के बारे में उसने आज तक नहीं सोचा है। राहुल गांधी द्वारा दो अर्थशास्त्रियों के इंटरव्यू लेने की टोटकेबाज़ी के बजाय विपक्ष को (़खासकर कांग्रेस को) इस सवाल पर एक विस्तृत और गहन हस्तक्षेप करना चाहिए था। 
विपक्ष की राजनीतिक अक्षमता उस समय अक्षम्य लगने लगती है जब वह अपनी ही राज्य सरकारों द्वारा किये जाने वाले अच्छे और श्रेयस्कर काम का प्रचार करने में नाकाम साबित होता है। विपक्ष की कम से कम तीन सरकारें ऐसी हैं जिनकी उपलब्धियों को राष्ट्रीय मंच पर पेश करने के सुनियोजित प्रयास होने चाहिए थे। पहली सरकार ओ.वी. विजयन के नेतृत्व वाले केरल की है। केरल में केवल आठ सौ लोगों को संक्रमण हुआ है और केवल पांच मौतें हुई हैं। क्या यह असाधारण उपलब्धि नहीं है? क्या इसे मोदी के गुजरात-मॉडल के मुकाबले केरल-मॉडल के रूप में प्रचारित करने की रणनीति नहीं अपनायी जानी चाहिए थी? इसी तरह कोविड का म़ुकाबला करने में राजस्थान की सरकार ने भी असाधारण योजनाबद्ध प्रयासों का प्रदर्शन किया है। गहलोत सरकार ने जिस प्रकार बुज़ुर्ग और बीमारियों से पीड़ित लोगों पर ़फोकस करके संक्रमण की रोकथाम का प्रयास किया, उससे अन्य सरकारें सबक हासिल कर सकती हैं। तीसरा अच्छा काम करने का श्रेय नवीन पटनायक की ओड़ीशा सरकार को जाता है। भले ही यह कोविड के मामले में न हो, पर अम्फान त़ूफान की चेतावनी मिलते ही जिस तत्परता से इस सरकार ने दो लाख लोगों को चार हज़ार से ज़्यादा शरणस्थलों में पहुंचाया (और साथ-साथ कोविड से संबंधित सतर्कताएं भी जारी रखीं), वह मिसाल के काबिल है। 1999 में इसी तरह के त़ूफान के कारण ओड़ीशा ने दस हज़ार जानें खोई थीं। इस बार एक भी व्यक्ति नहीं मरा। कांग्रेस समेत विपक्ष की अन्य पार्टियों को अपनी राजनीतिक कंजूसी ताक पर रख कर इन सरकारों की ढोल बजा कर सराहना करनी चाहिए थी। अगर वे ऐसा करेंगे तो भाजपा द्वारा प्रचलित प्रचारोन्मुख और शेखीखोर किस्म के गवर्नेंस के मॉडल की आलोचना अपने आप ही होने लगेगी। सोनिया गांधी को चाहिए कि वह तीनों ़गैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों को सार्वजनिक रूप से खुली बधाई दें और उनकी सराहना में कुछ बातें कहें। इससे उनकी और विपक्ष की सकारात्मकता सामने आएगी। 
कहना न होगा कि विपक्ष को मोदी और भाजपा के वर्चस्व के म़ुकाबले राजनीति करने की नयी-नयी तऱकीबें सोचनी होंगी। अपने संकीर्ण स्वार्थों को थोड़ी देर के लिए भूल जाना होगा, और व्यापक नज़रिया अपनाते हुए न केवल केंद्र सरकार की आलोचना करनी होगी, वरन आम जनता को नये लहज़े और नये नज़रिये के साथ सम्बोधित करने की शुरुआत करनी होगी। अगर वह ऐसा नहीं करेगा, तो मैदान में केवल एक ही टीम खेलती नज़र आएगी, और वह है भाजपा।