गरीब और किसान की बढ़ती चुनौतियां

देश में गरीब और किसान राजनीतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण वर्ग समझे जाते हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद लगभग सभी उत्तरोत्तर सरकारों ने गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम व किसान हितकारी नीतियों के माध्यम से इनके उत्थान के प्रयास किये हैं। सफलता भी मिली है, पर बढ़ती जनसंख्या के बोझ तले यह दिखायी नहीं देती। गरीब-अमीर की पहचान करना बहुत कठिन है। वेतनभोगी वर्ग के अतिरिक्त किसी की आय का अनुमान लगाना कठिन है। जिनके पास जीविका का नियमित साधन नहीं है, वह सभी गरीब नहीं होते। दिसम्बर 2016 में सूरत में एक चाय-पकौड़ा विक्रेता के पास लगभग 250 करोड़ की सम्पत्ति का पता चला। मीडिया में प्राय: ऐसी खबरें आती रहती हैं। इंटरनेट पर तलाश करने पर दर्जनों भिखारी भी करोड़ों की सम्पत्ति के स्वामी प्रतीत होते हैं।  
फल-सब्जी, चाय, पान आदि विक्रेता अन्य पटरी दुकानदार व व्यवसायी कुशल-श्रमिक आदि प्राय: स्वतंत्र रूप से संतोषजनक आय प्राप्त कर लेते हैं। सामान्यतया यह गरीब नहीं होते, परन्तु नियमित आय न होने के कारण इन्हें अमीर मान लेना भी उचित नहीं होगा। यह वर्ग जीविका या कमाई के लिए रोज काम करता है। श्रमिक वर्ग की दशा अलग है। श्रमिक कई क्षेत्रों जैसे कृषि (या ग्रामीण कंस्ट्रक्शन), मनरेगा, लघु उद्योग, भारी उद्योग, कंस्ट्रक्शन, व्यापार आदि में मालिक के अधीन काम करते हैं। इनकी दैनिक आय प्राय: न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम द्वारा निर्धारित होती है। नि:सन्देह यह गरीब ही कहे जायेंगे। यह वर्ग भी जीविका या कमाई के लिए रोज काम करता है और प्राय: दैनिक,साप्ताहिक या मासिक आधार पर भुगतान पा जाता है। 
कृषि में अनाज, दलहन, तिलहन व कुछ अन्य फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार तय करती है। सरकार की अत्यंत महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है कि किसान को फसल का उचित दाम मिले और देश के हर अमीर-गरीब को भोजन भी। पिछले कुछ वर्षों से किसानों की आय बढ़ाने हेतु न्यूनतम समर्थन मूल्यों को लागत प्लस 50 प्रतिशत सिद्धांत के आधार पर तर्कसंगत बनाया जा रहा है। परन्तु सीमान्त या मध्यम श्रेणी के किसानों को इससे प्राय: लाभ नहीं होता क्योंकि उनका उत्पादन अधिक नहीं होता। इस बार लॉकडाउन के कारण रबी (गेहूँ, सरसों आदि) की कटाई व मड़ाई (थ्रेशिंग) में बहुत समस्या हुई है। यद्यपि सरकार ने लॉकडाउन में छूट दी, परन्तु निर्णय लेने में थोड़ी देर हो गयी। श्रमिकों की कमी, कटाई व थ्रेशिंग में देरी, महंगी मजदूरी व महंगी थ्रेशिंग से किसानों को फसल का नुकसान हुआ है।
यदि किसी भी दैविक या भौतिक कारण से फसल प्रभावित होती है या लागत बढ़ जाती है, तो किसान की कमाई 6 माह से 1 वर्ष तक बाधित हो जाती है। व्यवसायियों व दैनिक कामगारों और किसानों की कमाई में यह बड़ा अन्तर है।  नकदी फसलों में यदि पैदावार अच्छी हो जाती है, तो किसान को परिश्रम अधिक करना पड़ता है, पर कोई लाभ नहीं होता। कई बार ऐसा देखा गया है कि जब भी आम की अच्छी फसल हुई तो मलीहाबाद से दिल्ली तक सभी मंडियों में आम बहुत सस्ता हो जाता है।  कुछ वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश में संतरा 90 पैसा प्रति किलोग्राम बिक चुका है। टमाटर के विषय में भी प्राय: ऐसा ही होता है। जब आलू की फसल अच्छी होती है तो भंडारण की समस्या हो जाती है। आलू से लदी हुई गाड़ियां कई दिनों तक शीतगृह के बाहर प्रतीक्षा में खड़ी रहती हैं। ढुलाई का किराया ज्यादा बढ़ जाने पर किसान आलू वहीं सड़क के किनारे फेंक कर चले जाते हैं। दिसम्बर 2018 में मध्य प्रदेश में प्याज 50 पैसा प्रति किलोग्राम और लहसुन 2 रुपए प्रति किलोग्राम बिक गया। यदि कभी इन उत्पादों की कीमत बेमौसम बढ़ भी जाये तो बड़े ब्यापारी लाभ उठाते हैं। नकदी फसलों की यह विशेषता है।
हाल के दिनों में देशव्यापी लॉकडाउन के कारण नकदी फसलों में किसानों की समस्या बहुत बढ़ गयी है। हरी सब्जी, फल, फूल की बिक्री बाधित होने से किसानों में हताशा छायी हुई है। इस बार आम की फसल इसी बुरे दौर से गुजरने वाली है। फसल में अबतक बहुत लागत लग चुकी है। किसान व व्यपारियों में ढुलाई व बिक्री को लेकर अनिश्चितता तो है ही, कोरोना संक्रमण से बचने की चिंता भी है। 
किसी भी आपदा से यदि सब्जी, फल व फूल की फसल को हानि पहुंचती है, लागत बढ़ जाती है या बिक्री बाधित होती है, तो किसान की कमाई 6 माह से 1 वर्ष तक बाधित हो जाती है। परन्तु आम जैसे फलों की फसल प्रभावित हो, तो किसान की कमाई 1 वर्ष से 2 वर्ष तक बाधित हो जाती है। प्रशासन व नीति निर्धारकों को इसका ध्यान रखते हुए किसानों को कृषि, बागवानी व फसल की बिक्री में सुविधा प्रदान करना चाहिए। साथ ही किसानों को प्रशासनिक समर्थन के लिए आश्वस्त करना चाहिए, ताकि वह उत्साह पूर्वक फसल पर ध्यान केन्द्रित कर सकें।