पुन: चीन के साथ बढ़ा तनाव

एक बार फिर भारत का अपने शक्तिशाली पड़ोसी देश चीन के साथ सीमाओं के मुद्दे पर तनाव उत्पन्न हो गया है। ऐसा ही तनाव भूटान, चीन एवं भारत की सीमा पर डोकलाम में वर्ष 2017 में पैदा हुआ था। उस समय 73 दिन तक दोनों देशों की सेनाएं इस स्थान पर एक-दूसरे के समक्ष खड़ी रही थीं। ऐसी स्थिति से लड़ाई की आशंका बन गई थी। चीन एवं भारत सदियों से पड़ोसी ही नहीं रहे अपितु इनके आपस में व्यापारिक एवं सांस्कृतिक संबंध भी बने रहे हैं। चीन के यात्री निरन्तर भारत में आते रहे हैं। भारत की धरती पर उत्पन्न हुये बौद्ध धर्म ने एक समय चीन पर अपना बहुत बड़ा प्रभाव छोड़ा था। देश की स्वतंत्रता के बाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के चाऊ एन लाई एवं माओ जे तुंग जैसे बड़े नेताओं के साथ बहुत अच्छे संबंध रहे हैं। उस समय दोनों देशों के भातृत्व को व्यक्त करते हुये पंचशील नामक घोषणा-पत्र की भी बड़ी चर्चा हुई थी तथा उस समय देश की गलियों में हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नारे गूंजते रहे थे, परन्तु चीन की ओर से वर्ष 1959 में तिब्बत के विशाल क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लेने के बाद वहां के धर्म-गुरु दलाई लामा को भाग कर भारत में शरण लेनी पड़ी थी। चाहे उस समय के बाद भारत ने सदैव दलाई लामा पर अपनी धरती से चीन के विरुद्ध राजनीतिक गतिविधियां न करने की शर्त लगा रखी थी परन्तु चीन ने कभी भी दलाई लामा का भारत में शरण लेना गवारा नहीं किया। इसके अतिरिक्त उसने लगभग अपने सभी पड़ोसियों के साथ सदैव सीमांत विवाद को बनाये रखा। इस संबंध में उसने कभी भी समझौतावादी नीति नहीं अपनाई। रूस के साथ भी उसका लम्बा सीमांत विवाद चलता रहा था। चाहे दोनों देश कम्युनिस्ट विचारधारा के समर्थक थे, परन्तु इसके बावजूद उनकी सीमांत झड़पें लम्बी अवधि तक चलती रहीं परन्तु अंतत: रूस को भी इस मामले पर वर्ष 2008 में समझौता करने के लिए विवश होना पड़ा था। 1962 के हमले के बाद आज तक भी चीन ने भारत की ओर से अपने माने जाते क्षेत्रों के लगभग 35 हज़ार किलोमीटर के क्षेत्र पर कब्ज़ा किया हुआ है। यह तनाव अब तक भी बना आ रहा है। सीमांत झगड़े को समाप्त करने के लिए दोनों देशों की उच्च-स्तरीय अनेकानेक बैठकें भी हो चुकी हैं, परन्तु चीन के निरन्तर हठ ने इस मामले को हल नहीं होने दिया। अतत: वर्ष 1988 में भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी को चीन का दौरा करना पड़ा था। इसके बाद इस मामले पर चीन कुछ नरम अवश्य हुआ था, परन्तु दोनों देशों में भीतर-भीतर यह बात निरन्तर सुलगती रही है। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने शासन के समय किए गये परमाणु परीक्षण का कारण चीन को बताते हुये अमरीका को यह गुप्त सन्देश दिया था कि पड़ोसी देश के परमाणु शक्ति होने के कारण भारत को ऐसा पग उठाने के लिए विवश होना पड़ा है। चाहे चीन का भारत के साथ व्यापारिक समझौता है। भारत के बाज़ारों में चीनी सामान अब भी भरा पड़ा है परन्तु इसके बावजूद चीन ने भारत के साथ कभी मन से सुलह नहीं की। चाहे दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की आपसी अनौपचारिक मुलाकातें भी होती रही हैं। वर्ष 2019 में तमिलनाडु के महाबलीपुरम में राष्ट्रपति शी जिनपिंग एवं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आपस में मिले थे परन्तु ऐसी बैठकें भी दोनों देशों में उपजे दशकों के अविश्वास के कारण अपना उद्देश्य पूरा करने में सफल नहीं हुईं। अब डोकलाम के बाद पहले लद्दाख और फिर उत्तरी सिक्किम की सीमाओं पर दोनों देशों के सैनिकों की तीव्र झड़पें यह प्रकट करती हैं कि दोनों देशों के बीच बना दशकों पुराना तनाव अभी भी जारी है। पिछले वर्ष चीन के वुहान शहर से शुरू हुई कोरोना की महामारी, जिसने आज दुनिया भर को खतरे में डाल रखा है, को लेकर अमरीका सहित अधिकतर यूरोपीय देशों का चीन से पूरी तरह मोह भंग हो चुका है। अमरीका ने तो अपनी दर्जनों बड़ी कम्पनियों का चीन से कारोबार ठप्प करके भारत एवं कुछ अन्य देशों की ओर इसीलिए उनका रुख मोड़ा है जो चीन को गवारा नहीं है। ताज़ा झड़पों को भी इसी पृष्ठ-भूमि में देखा जा सकता है। डोकलाम की स्थिति की भांति अब उत्पन्न हुई स्थिति भी भारत के संयम एवं दृढ़ता की परीक्षा होगी। नि:सन्देह दोनों देशों के बीच शांति बनाये रखने के दृष्टिकोण से दोनों देशों की सरकारों के लिए यह एक बड़ी परीक्षा की घड़ी है।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द