नोटबंदी की गलतियों  से नहीं लिया गया कोई सबक 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा घोषित लॉकडाउन विफल हो गया है और पूरा देश कोरोना की आग में जलने लगा है। उम्मीद की जा रही थी कि लॉकडाउन कोरोना के चेन को तोड़ देगा और सिर्फ  लोगों को घरों में बंद कर देने से ही इस महामारी का संकट टल जाएगा। लोग घरों में बंद भी हुए। देश की आर्थिक गतिविधियों पर लगभग विराम लग गया। करोड़ों लोग बेरोजगार हो गए। लाखों मजदूरों को खून के आंसू पीने पड़े। बेघर मजदूर अपने घरों की ओर पैदल जाने के क्रम में ऐसी त्रासदी का शिकार हुए, जो आज़ाद भारत के इतिहास में पहली बार हो रहा था। आज़ाद भारत क्या, देश के ज्ञात इतिहास में कभी ऐसी घटना नहीं घटी होगी कि लाखों लोग पैदल चल रहे थे और उनमें से कई अपनी जान गंवा रहे थे, तो कई पुलिस अत्याचार का सामना कर रहे थे। भारत के विभाजन के समय इस तरह की घटना देखने को मिली थी लेकिन लॉकडाउन के बाद की यह घटना उससे भी ज्यादा त्रासद है। विभाजन के समय तो लोग सीमा पार कर रहे थे और वे कुछ सौ किलोमीटर की यात्रा पर निकले थे, लेकिन इस समय तो लोग हज़ारों किलोमीटर की यात्रा पर निकले थे और रास्ते में उन्हें पुलिसिया अत्याचार का सामना भी करना पड़ रहा था। अभी भी इस तरह के मामले समाप्त नहीं हुए हैं।ज़ाहिर है, भारत ने लॉकडाउन की बहुत बड़ी कीमत चुकाई, लेकिन इसके बावजूद कोरोना का संकट अनियंत्रित है। 17 मई को लॉकडाउन का तीसरा चरण पूरा हुआ, लेकिन समस्या थमने की बजाय बढ़ती चली गई और आखिरकार, केन्द्र और राज्य सरकारों को लॉकडाउन में काफी ढील देनी पड़ी। करीब 75 फीसदी लॉकडाउन हटा दिया गया है, लेकिन कोरोना के खतरे बने हुए हैं। ढील देते समय यह भी मान लिया गया है कि इसके कारण कोरोना का संक्रमण और बढ़ सकता है। सच तो यह है कि वह बढ़ भी रहा है लेकिन ढील देना मजबूरी थी क्योंकि कोरोना का अंत नज़दीक आते दिख नहीं रहा और अनंत काल तक किसी भी देश को लॉकडाउन में नहीं रखा जा सकता। लॉकडाउन के द्वारा निरीह मजदूरों के सामने जीवन मरण का सवाल तो खड़ा कर ही दिया गया, और यदि उसी तीव्रता के साथ इसे आगे बढ़ाया जाता, तो देश की आबादी के अन्य हिस्सों के सामने भी जीवन मरण का सवाल खड़ा हो जाता। लॉकडाउन जिंदगी बचाने के लिए किया जाना चाहिए, न कि जिंदगियां उजाड़ देने के लिए।आज भारत में कोरोना संक्रमितों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है। भारत चीन को पीछे छोड़कर दुनिया में कुल संक्रमितों की तालिका में 11वें स्थान पर पहुंच चुका है। अभी यह ईरान से पीछे है। लेकिन कुछ दिनों में ही ईरान को पीछे छोड़कर टॉप 10 में शामिल हो जाएगा। कुल एक्टिव मरीजों की संख्या के मामले में तो यह विश्व तालिका में पांचवें स्थान पर पहुंच चुका है। भारत के लिए सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि दुनिया के अधिकांश देशों में नये कोरोना मरीजों की प्रति दिन होने वाली बढ़त अब घटने लगी है। अमरीका में भी प्रति दिन की बढ़त में गिरावट आ गई है लेकिन भारत में लगातार वृद्धि हो रही है। सवाल उठता है कि आखिर हम पर कोरोना भारी क्यों पड़ा? हमारी इतनी कुर्बानियां बर्बाद क्यों हुईं?  इसका एकमात्र जवाब यही है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कोरोना संकट के इस दौर में देश का सही नेतृत्व नहीं कर पाए। उन्होंने एक से बढ़कर एक गलतियां कीं। 30 जनवरी को ही पहला कोरोना केस भारत में आ चुका था। डेढ़ महीने तक तो उन्होंने इस समस्या को गंभीरता से लिया ही नहीं और इससे देश को बचाने के लिए कोई उपाय नहीं किए। उलटे उन्होंने फरवरी के अंतिम सप्ताह में ट्रम्प की यात्रा का आयोजन करवाकर अहमदाबाद में लाखों लोगों को एक स्टेडियम में इकट्ठा कर दिया। मार्च के तीसरे सप्ताह में उन्हें समस्या की गंभीरता का अहसास हुआ, लेकिन तब भी वह गंभीर नहीं हुए। उन्होंने लॉकडाउन का फैसला कर लिया, लेकिन उससे तत्काल आने वाली समस्या के निदान के बारे में कुछ भी नहीं सोचा और कुछ भी नहीं किया। घरबंदी उनके लिए होती है, जिनके पास घर है। जिनके पास घर ही नहीं है, उन बेघरों के बारे में उन्होंने कुछ भी नहीं किया। जांच किट्स, पीपीई वगैरह का इंतजाम भी समय रहते हुए वह नहीं कर पाए थे। सोच लिया कि लोग घरों में बंद रहें और संकट समाप्त। यह नोटबंदी जैसी गलती थी, जिसमें मोदी जी ने यह नहीं सोचा कि 80 फीसदी से ज्यादा रकम को बाज़ार से हटाने के बाद बाज़ार का क्या होगा। यदि उस विफलता से मोदी जी ने सबक सीखा होता, तो कोरोना के लिए किया गया लॉकडाउन विफल नहीं होता। (संवाद)