कोरोना का प्रसार और आर्थिक संकटमोदी सरकार के लिए बढ़ सकती है चुनौती

(कल से आगे)
नागरिकता संशोधन विधेयक
दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार ने एजेंडों में सबसे अधिक विवाद नागरिकता संशोधन कानून अर्थात सी.ए.ए. के मुद्दे पर हुआ। बुद्धिजीवी वर्ग तथा विरोधी पार्टियों द्वारा इसे संविधान की आत्मा पर लगा घाव करार दिया गया। इसे मोदी सरकार  का पहला ऐसा कानून भी कहा जा सकता है जिस के विरोध नें सार्वजनिक आंदोलन का रूप धारण कर लिया। राजनीतिक पार्टियों तो अपने-अपने तरीके से संसद के अंदर-बाहर इसका विरोध कर ही रही थीं। परंतु बिना किसी चेहरे या नामचीन शख्सियतों के यह विरोध सड़कों पर पहुंच गया। दिल्ली का शहीन बाग क्षेत्र विरोध तथा आंदोलन की पहचान के रूप में देश-विदेश में प्रसिद्ध हो गया। शाहीन बाग में आंदोलन के मोर्चे का नेतृत्व महिलाएं तथा दादियों ने संभाल लिया। देश के विभिन्न हिस्सों में आंदोलन कर रहे क्षेत्र भी शाहीन बाग कहलाए जाने लगे। संविधान की प्रस्तावना, आज़ादी की नज़में इस आंदोलन की पहचान बन गईं। विद्यार्थियों के जुड़ने के बाद इस आंदोलन ने और भी बड़ा रूप धारण कर लिया। नागरिकता संशोधन के साथ जुड़े नागरिकों के रजिस्टर तथा आबादी के रजिस्टर के कदमों को सरकार द्वारा आगे बढ़ाने से पहले ही इसका देश व्यापी विरोध शुरू हो गया। इन विरोधों को चलते, गृहि मंत्री अमित शाह के लोकसभा में हर हाल में एन.आर.सी. लाने का दावा कर चुकने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के रामलीला मैदान में यह कहना पड़ा कि सरकार की फिलहाल एन.आर.सी. लाने की कोई मंशा नहीं है। यह कहना गलत नहीं होगा कि सी.ए.ए. ने सरकार के अपना एजेंडा लागू करने के ढंग-तरीकों तथा जल्दबाजी पर रोक लगा दी। सरकार की विचारधारा का समर्थन करने वाले विशेषज्ञों का भी मानना है कि बहुमत के ज़ोर पर मनमाने ढंग से अपने एजेंडे की ओर आगे बढ़ने के बजाय सरकार द्वारा कुछ मुद्दों पर विरोधी पक्षों के साथ सहमति बनाई जा सकती थी।  
केन्द्र का हस्तक्षेप
लोकसभा चुनाव 2019 में जनता से मिले भारी समर्थन के बावजूद भाजपा को प्रांतीय राजनीति में कोई खास सफलता हासिल नहीं हुई है। महाराष्ट्र, झारखंड, मध्य प्रदेश व कर्नाटक जैसे राज्यों में सत्ता के तकरीबन पास पहुंच चुकी भाजपा को विरोधी पक्ष की भूमिका में ही संतोष करना पड़ा। इन राज्यों में सत्ता हासिल न कर पाने का एक बड़ा कारण भाजपा द्वारा गठबंधन सहयोगियों की अनदेखी भी रहा। फिर चाहे वह शिरोमणि अकाली दल हो, शिव सेना हो या फिर कोई अन्य पार्टी। 543 सीटों में से 303 का आंकड़ा हासिल करने वाली भाजपा ने गठबंधन सहयोगियों की शर्तों या अपीलों की बजाय अपनी शर्तें लगानी शुरू कर दीं जो प्रांतीय राजनीति के बाकी पक्षें-विशेष  रूप से स्थानीय पार्टियों को मंजूर नहीं हुईं। कर्नाटक व मध्य प्रदेश में तो भाजपा ने लम्बे राजनीतिक ड्रामे तथा सरेआम विधायकों की खरीदो-फरोख्त के बाद अपनी सरकार तो कायम कर ली, परंतु ‘लोकतांत्रिक चुनाव अमल’ और ‘जनता की राय’ आदि शब्दों पर प्रश्न चिन्ह और गाढ़ा कर दिया। नि:संदेह यह प्रश्न चिन्ह सिर्फ  भाजपा द्वारा ही नहीं लगाया गया था इससे पहले यह अमल चलता रहा है। परंतु बड़े फतवे के साथ सत्ता में आई भाजपा का ध्यान पुराने पदचिन्हों को फीका करने के बजाय गाढ़ा करने पर अधिक रहा। चाहे दिल्ली में आम आदमी पार्टी को मिला स्पष्ट बहुमत उसे सत्ता दिलाने तथा उसे बरकरार रखने में मददगार रहा परंतु महाराष्ट्र में सरकार को अस्थिर करने की कोशिशों की आवाज़ अभी भी धीरे-धीमे सुरों में सुनी जा सकती है। 
विदेश नीति
सत्ता तथा विचारधारा बदलने के साथ नीतियों में होने वाले ज़रूरी बदलाव में सबसे अधिक प्रभाव विदेश नीति पर पड़ता है। वैश्विक स्तर पर एक देश के रूप में छवि उभारने व बदलवाने में काफी समय लग जाता है। छवि उभारने की कवायद मोदी सरकार ने पहले कार्यकाल में ही शुरू कर दी थी, जिस के तहत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तकरीबन 50 से अधिक देशों का दौरा किया। पहले कार्यकाल में ही अहम रणनीतिक सहयोगी के रूम में उभरा अमरीका भारत की विदेश नीति का अहम हिस्सा बना। सितम्बर 2019 में अमरीका के डैलैस में हुई ‘हाऊडी मोदी’ रैली के बाद यह भागीदारी और भी पुख्ता हो गई। तकरीबन 50 हज़ार भारतीय मूल के लोगों में यदि मोदी वक्ता थे तो अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ‘गैस्ट ऑफ ऑनर’ थे। ट्रम्प इस कार्यक्रम में इतने प्रभावित हुए कि फरवरी में उन्होंने भारत का पहला दौरा करने का फैसला कर लिया, चाहे इसकी पृष्ठभूमि में अमरीका में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव ही हैं। विदेश नीति के तहत छवि में बदलाव के हिस्से के रूप में जहां मोदी ने अपने दूसरी बार के शपथ ग्रहण समारोह में (बिमस्टिक) प्रमुखों को निमंत्रण दिया, वहीं पहले गणतंत्र दिवस (दूसरे कार्यकाल) के अवसर पर आसियान के 10 देशों के प्रमुखों को अतिथि बनाया।  इसी कवायद के तहत भारत की ‘पड़ोसी पहले’ की नीति के तहत मोदी ने दूसरी बार सत्ता संभालने पर सबसे पहले दौरा मालद्वीप, श्रीलंका तथा फिर भूटान का किया। हालांकि पाकिस्तान, नेपाल, बंगलादेश तथा चीन के साथ भारत के संबंधों में कड़वाहट भी आई है। परंतु इस कड़वाहट को भारत पर हावी न होने देने के लिए अन्य देशों से लगातार संबंध बढ़ाने भी सरकार की विदेश नीति का हिस्सा  रहे हैं। यहां तक कि कोविड-19 के समय भी दूतावास अमल जारी रखने की पहल कदमी के रूप में भारत ने न सिर्फ सार्क प्रमुखों की वीडियो कांफ्रैंस द्वारा बैठक बुलाई बल्कि कोरोना से निपटने के लिए एक संयुक्त फंड का गठन करने की भी पहल की। पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने भी इस में प्रतिनिधित्व दर्ज करवाया था, चाहे उस समय कश्मीर का मुद्दा भी उठाया गया था।
कोरोना संकट
कोरोना की दस्तक के बाद नीतियां, कारगुज़ारियां, प्रशासन का रूप, आवश्यक तौर पर स्वास्थ्य से संबंधित मुद्दों की तरफ ही केन्द्रित हो गया। कोविड-19 के कारण बदले परिदृश्य  भूख, रोज़गार और प्रवासी मज़दूरों के छिपे और चुपचाप मुद्दे पुन: सिर उठाने लग पड़े। महामारी की आपदा जैसे स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे को तार-तार कर रही हो। मोदी के पूरे कार्यकाल को शायद कोरोना से पूर्व और कोरोना के बाद के दौर में बांट कर देखा जा सकता है। जहां कोरोना से पूर्व के दौर में जल्दबाज़ी में सभी कोर एजेंडे निपटाने में व्यस्त सरकार को नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में हुए आन्दोलन ने नुकेल डाल दी थी। वहीं कोरोना के बाद के दौर में ह़कीकी मुद्दे पुन: केन्द्र में आ गए थे।सरकार कोरोना से कितनी मुस्तैदी से लड़ी, यह स्वयं में एक व्यापक मुद्दा हो सकता है। परन्तु ह़कीकी मुद्दों  में उलझी सरकार सबसे ज्यादा प्रवासी मज़दूरों के मामले में निशाने पर आई। 60 दिनों तक सवा सौ करोड़ भारतीयों को तालाबन्दी की पालना करवाने को सरकार की उपलब्धि कहा जा सकता है, परन्तु तालाबन्दी से पहले और दूसरे दौर में सरकार की सलाह मान कर, ‘जहां हो वही बने रहो’ के मंत्र की पालना कर रहे प्रवासी मज़दूर आखिर सब्र का दामन छूटने के बाद अपने घरों को लौटना शुरू हो गए। आज़ादी के बाद इतना बड़ा पलायन पहली बार देखने को मिला। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 8 करोड़ प्रवासी मज़दूर स्वयं अपनी ‘कर्म भूमि’ छोड़ कर ‘मातृ भूमि’ की तरफ जाते नज़र आए। पैदल, नंगे पांव मीलों का स़फर मापने वाले प्रवासी मज़दूरों के दुखांत को कुछ कम करने के लिए सरकार ने कुछ रेल गाड़ियों का प्रबंध भी किया, परन्तु अभी भी मज़दूरों की एक कतार इंतज़ार में है और दूसरी कतार पैदल अपना स़फर जारी रखे हुए है।
आर्थिक संकट
विदेश नीति के तहत अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सफल सरकार आर्थिक मोर्चे पर नाकाम नज़र आई। अर्थ शास्त्रियों का मानना है कि केन्द्र की आर्थिक नीति स्पष्ट नहीं है। जहां सरकार आत्म-निर्भर मुहिम के तहत देसी वस्तुओं को उत्साहित करने की बात करती है, वहीं  प्रत्यक्ष रूप से विदेशी पूंजीकारी (एफ.डी.आई.) को समर्थन भी देती नज़र आती है।आर्थिक मंदी और कोरोना संकट के कारण भारत के आर्थिक ढांचे की रफ्तार पिछले 11 वर्ष में सबसे निचले स्तर पर आ गई है। आंकड़ों संबंधी मंत्रालय द्वारा जारी  अभी तक के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2019-20 में कुल घरेलू उत्पाद विकास दर (जी.डी.पी.) में भी ज़रबदस्त गिरावट दर्ज की गई है, जिसके अनुसार यह दर पिछले वर्ष के 6.1 प्रतिशत से कम होकर 4.2 प्रतिशत रह गई है, जोकि 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से सबसे कम हैं। इन आंकड़ों में 2019-2020 की अंतिम तिमाही अर्थात् जनवरी से मार्च 2020 में तो जी.डी.पी. की दर सिर्फ 3.1 प्रतिशत रह गई है। यह आंकड़े दर्शाते हैं कि भारत में कोरोना संकट फैलने से पूर्व ही अर्थ-व्यवस्था कमज़ोर पड़ती जा रही थी।रोज़गार के मुद्दे पर भी मोदी सरकार विपक्षी पार्टियों के निशाने पर रही है। पारम्परिक श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय द्वारा प्रत्येक वर्ष बेरोज़गारी के आंकड़े लिए जाते रहे हैं परन्तु 2017 से यह अमल निरन्तर बंद है। जिस कारण विपक्षी पार्टियां सरकार पर आंकड़े छुपाने का आरोप लगाती रही हैं।  पीयू रिसर्च सैंटर द्वारा 2018-19 में जारी रिपोर्ट के अनुसार लगभग 1 करोड़, 80 लाख लोग बेरोज़गार और 39 करोड़ 37 लाख लोग नौकरी न मिलने के कारण निम्न स्तर की नौकरियां करने के लिए मज़बूर हैं। बेरोज़गारी के आंकड़ों में अगर तालाबन्दी के प्रभाव को भी ध्यान में लिया जाए तो 20 से 30 वर्ष की आयु के 2 करोड़ 70 लाख नौजवान अप्रैल में अपनी नौकरी गंवा बैठे हैं। कोरोना वायरस के कारण की गई तालाबन्दी के व्यापक प्रभाव अभी आने शेष हैं। परन्तु आर्थिक मोर्चे के यह आंकड़े डराने वाले हैं।
कितने संतुलन में है मोदी सरकार
स्तरीय मापदंडों के आधार पर कौन सा लफ्ज़ तराज़ू के कौन-से हिस्से पर स्टीक बैठता है और भारतीय अर्थ-व्यवस्था का तराज़ू कितने संतुलन में है, इसका काफी सीमा तक अनुमान अब सभी को लग ही गया होगा। दूसरे कार्यकाल के दूसरे वर्ष में देश वासी उम्मीद करते हैं कि अब सरकार का प्राथमिक एजेंडा ह़कीकी चुनौतियों को हल करने का होगा। (समाप्त)