आज भी सार्थक है कबीर का चिन्तन

अंधेरा जितना गहरा होगा, उतना ही दीपक का प्रकाश तेज होगा। यह बात कबीर जी पर यथार्थ सिद्ध होती है। आज चारों ओर अज्ञानता का घनघोर अंधेरा सुरसा की भांति मुंह फैलाये समाज की सभ्यता को निगल जाने को आतुर है। सच पूछो तो आज कबीर की उपयोगिता और  अधिक महसूस होती है। कबीर अर्थ में नहीं बल्कि अध्यात्म में अग्रणी थे। समाज की विसंगतियों का दोष वह कलियुग पर नहीं थोपते। उनकी रचनाओं के आईने में उनका जो चेहरा उभरता है, उसे नजदीक से निहारने पर सच्चे संत या ज्ञानी भक्त का ही प्रतीत होता है। बिना कागज कलम के उन्होंने वह सब कह डाला जो समाज को सोचने पर विवश करता है। जब सारे सम्प्रदाय लुप्त होने लगे, तब उन्होंने सद्भावनापूर्ण सम्प्रदाय स्थापित किया। उनका उद्देश्य सृजन था, निषेध नहीं। उनका सारा संघर्ष चेतना पर छाई हुई विकृतियों से होता है इसलिए वह स्पष्ट कहते हैं कि अपने आप से लड़ना सीखो। अपने अंदर काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि जो विकार हैं, उनसे लड़ना सीखो। इन पर विजय पाने के बाद ही सुधार होगा। समाज सुधार की बातें तो बाद की हैं, सर्वप्रथम तो स्वयं को ही सुधारना होगा। उनके मन में समाज का विकल्प ‘सार्वभौम मानव समाज’ के रूप में स्पष्ट दिखाई देता है। वह न तो अपने को हिन्दू समाज से जोड़ते हैं और न ही मुस्लिम समाज से। वह तो सार्वभौम मानव समाज के निर्माण का स्वप्न देखते थे। कबीर जहां मनुष्य की एक ओर जोरदार फटकार लगाते हैं, वहीं दूसरी ओर उपदेश भी देते हैं। इससे स्पष्ट है कि वह अपने इर्द गिर्द के समाज से उदासीन नहीं हैं किंतु उसकी वर्तमान कुरूपता उन्हें क्षुब्ध करती है। उन्होंने अपने दिव्य संदेश में बताया कि जीवन का मूल्य तभी बढ़ता है जब त्याग, अहिंसा, प्रेम और व्यवहार श्रेष्ठ हो। अर्धचेतन अवस्था में भागते जाना कोई प्रगति नहीं होती। प्रगति तो पूर्णता का प्रतीक है। वह स्वानुभूति को महत्व देते हैं इसलिए सदैव समाज में पर्याप्त संशोधन या सुधार के पक्षधर रहे।कबीर वर्णाश्रम व्यवस्था के साथ मानवता तथा एकता की उपेक्षा नहीं करते। वह हर कीमत पर समता की प्रतिष्ठा चाहते थे। उनके आस-पास जो भी समाज हो, उसमें बिना भेदभाव के वह परिवर्तन लाना चाहते हैं। उनकी दृष्टि अनुभव केन्द्रित है। मानवीय प्रकृति की विवशता के कारण वह अपने समाज और समय की दुखदायी विकृतियों से क्षुब्ध हो उठे और संशोधन तथा सुधार के लिए अकेले ही चल पड़े। सामान्यत: संत कबीर का समय संवत 1455 से 1565 तक माना जाता है। यह समय देश में राजनीतिक, आर्थिक,     धार्मिक तथा सामाजिक सभी दृष्टियों से काफी उथल पुथल का था। शासकों में भी प्राय: धर्म का विनाशकारी उन्माद छाया हुआ था। समाज की उपासना पद्धतियां भी विकृतियों से ग्रस्त थीं। पारस्परिक फूट और विद्वेषवश हिंदू शासक परास्त होकर विवश जीवन जी रहे थे। समाज की यह दशा, व्याप्त विषमता, अनगिनत विभाजित इकाइयां और पाखण्ड का ताण्डव चारों ओर छाया था। ऐसे समय में प्रतिक्रि या और प्रतिशोध की आवश्यकता थी। ऐसे दुर्दम्य अपसांस्कृतिक परिवेश को बदलने का कार्य आसान नहीं था। फिर भी संत कबीर ने किया। सचमुच ऐसा कार्य कबीर जैसे महान विचारक ही कर सकते थे। कबीर के यथार्थ चिंतन की आज भी जरूरत है। देश के विकास में योगदान देने का संकल्प मात्र स्वप्न बनकर न रह जाए। उसे साकार रूप में परिणत करने का प्रयास करें, तभी सुधार संभव है। एकता और आदर्श अध्यात्म द्वारा ही संभव हैं, इसलिए उन्होंने बताया कि मूल तत्व का संग्रह कर उपभोग करें, तभी षड्यंत्रों से बच सकेंगे। उनका ज्ञान जीवन मूल्यों को लेकर चलता है, तभी तो श्रेष्ठ है। वास्तव में कबीर का दिव्य संदेश मौन शिक्षक है। यह प्रतिपल प्रेरणा तो देता ही है, साथ में भविष्य के लिए चुनौती और मार्गदर्शन भी प्रदान करता है, इसलिए उन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। वह आज भी प्रासंगिक हैं। 

-रामचरण यादव