भारतीय क्षेत्र पर दावे वाला नेपाल का नया नक्शा आपत्तिजनक 

नेपाल की केपी ओली की कम्युनिस्ट सरकार भारत विरोध में जिस सीमा तक जा रही है, वह दुर्भाग्यपूर्ण है। लिपुलेख विवाद को चरम पर पहुंचाने के बाद नेपाल ने अपने देश का नया नक्शा जारी किया है जिसमें भारत के 395 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को अपना दिखाया गया है। नेपाल ने नए नक्शे में लिंपियाधुरा, लिपुलेख और कालापानी के अलावा गुंजी, नाभी और कुटी गांवों को भी अपने नक्शे में शामिल किया है। कालापानी के 60 वर्ग किलोमीटर और लिंपियाधुरा के 335 किलोमीटर के इलाके को जोड़ दें तो यह कुल 395 वर्ग किलोमीटर हो जाता है। नेपाल ने भारत के इस इलाके पर अपना दावा किया है। यह आम भारतीयों को तिलमिला देने के लिए काफी है। स्वभाविक ही न चाहते हुए भी भारत को इस पर कड़ी प्रतिक्रिया देनी पड़ी है। भारत ने कहा है कि देश की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता में इस तरह का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने कहा कि नेपाल द्वारा जारी किया गया नया नक्शा किसी ऐतिहासिक तथ्य पर आधारित नहीं बल्कि मनगढ़ंत है। उन्होंने कहा कि नेपाल को भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना चाहिए।
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने जब 8 मई, 2020 को लिपुलेख से कैलाश मानसरोवर जाने वाले रास्ते का उद्घाटन किया, तभी से नेपाल इसका विरोध कर रहा है। लिपुलेख के लिए सड़क मार्ग खोले जाने के बाद आई नेपाल की कड़ी प्रतिक्रिया पर भारत ने इस सच्चाई को स्पष्ट किया था कि किसी भी नेपाली क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं किया गया है और यह सीमा सड़क कैलाश मानसरोवर की पारम्परिक धार्मिक यात्रा के रूट पर ही बनाई गई है। लेकिन नेपाल के प्रधानमंत्री अपने बयानों से देश में भारत विरोधी माहौल बना रहे हैं। आखिर नेपाल का नया नक्शा जारी करने के ऐलान के बाद प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को भारत पर ‘सत्यमेव जयते’ की तर्ज पर ‘सिंहमेव जयते’ जैसा तन्ज़ कसने की क्या जरूरत थी? कालापानी से लगे छांग गाँव में नेपाली आर्म्ड पुलिस फोर्स या (एन.ए.पी.ए.) ने एक सीमा चौकी स्थापित की है। एपीए का ढांचा भारत के सशस्त्र सीमा बल और भारत-तिब्बत सीमा पुलिस की तरह ही है। नेपाल ने नए नक्शे में लिपुलेख पर अपना दावा करते हुए कहा है कि महाकाली (शारदा) नदी का स्रोत दरअसल लिम्पियाधुरा ही है जो फिलहाल भारत के उत्तराखंड का हिस्सा है। उत्तराखंड के धारचूला के पूरब में महाकाली नदी के किनारे नेपाल का दार्चुला ज़िला पड़ता है। महाकाली नदी नेपाल-भारत की सीमा के तौर पर भी काम करती है। धारचूला से लिपुलेख को जोड़ने वाली सड़क कैलाश मानसरोवर यात्रा मार्ग के नाम से भी प्रसिद्ध है। नेपाल सरकार कहती है कि हम हमेशा से महाकाली नदी के पूरब के हिस्से को नेपाल का मानते हैं। अब नक्शे में उसे डाल दिया गया है। नेपाल कहता है कि भारत ने जिस सड़क का निर्माण उसकी ज़मीन पर किया है, वो ज़मीन भारत को लीज़ पर तो दी जा सकती है लेकिन उस पर दावा नहीं छोड़ा जा सकता है। जो जमीन आज तक भारत की है, वह आपसे उसे लीज़ पर लेगा, यह हास्यास्पद तर्क कौन स्वीकार करेगा?
भारत के लिए सीमा के ये क्षेत्र विवाद का विषय नहीं हैं लेकिन कुछ विश्लेषक इसकी शुरुआत 1816 से बता रहे हैं। तब नेपाल और ब्रिटिश इंडिया के बीच 1816 में सुगौली संधि हुई थी। इस संधि में तय हुआ था कि काली या महाकाली नदी के पूरब का इलाका नेपाल का होगा। काठमांडो में मान लिया गया था कि लिम्पियाधुरा से निकली काली नदी पश्चिमी सीमा तय करती है। इसके समानांतर दिल्ली ने दावेदारी की कि कालीनदी लिपुलेख से निकली है। महाकाली नदी कई छोटी धाराओं के मिलने से बनी है और इन धाराओं का उद्गम अलग-अलग है। पिछले कुछ समय से नेपाल कहने लगा है कि कालापानी के पश्चिम में जो उद्गम स्थान है, वही सही है और इस लिहाज से पूरा इलाका उसका है। भारत दस्तावजों के सहारे साबित कर चुका है कि काली नदी का मूल उद्गम कालापानी के पूरब में है। अगर 1816 की संधि में नेपाल के हक की बात है तो उसे वो दिखाना चाहिए लेकिन नेपाल कह रहा है कि सुगौली की संधि के दस्तावेज खो गए हैं।
वैसे यह सच है कि मई 2015 में प्रधानमंत्री मोदी की चीन यात्रा के दौरान लिपुलेख में एक व्यापारिक पोस्ट खोले जाने पर हुई सहमति के विरुद्ध 9 जून, 2015 को नेपाल की संसद में प्रस्ताव पारित किया गया। माना जाता है कि स्वयं चीन ने ऐसा कराया था लेकिन आज पांच वर्ष हो गए, नेपाल ने कभी इस विषय पर भारत से बातचीत करने की कोशिश नहीं की। सब जानते हैं वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध से पहले लिपुलेख दर्रे के रास्ते चीन से भारत का व्यापार हो रहा था। 1962 में युद्ध के समय से ही यहां पर इंडो-तिब्बतन फोर्स की तैनाती भारत ने कर रखी है। अब नेपाल इसे हटाने की मांग कर रहा है। 1962 के युद्ध के तीस साल बाद, 1992 में चीन और भारत ने लिपुलेख दर्रे से व्यापारिक मार्ग खोला था। कैलाश मानसरोवर जाने के वास्ते भी इसी मार्ग का इस्तेमाल होता रहा है। उस समय भी नेपाल ने आपत्ति नहीं की। सितम्बर, 1961 में जब कालापानी विवाद उठा, उस समय भी भारत-नेपाल की तत्कालीन सरकारों ने तय किया था कि द्विपक्षीय बातचीत के आधार पर हम इसे सुलझा लेंगे। सवाल है कि अब 2020 में उन्होंने नया नक्शा जारी कर दिया है, तो उसे कौन मानेगा? नेपाल अंग्रेजों की संधि की बात कर रहा है लेकिन 1950 की भारत-नेपाल संधि की नहीं। 31 जुलाई, 1950 को हुई भारत-नेपाल संधि के अनुच्छेद आठ में स्पष्ट कहा गया है कि इससे पहले ब्रिटिश इंडिया के साथ जितने भी समझौते हुए, उन्हें रद्द माना जाए। इसके बाद क्या बचता है? जाहिर है, जो भौगोलिक सीमा दोनों देशों का मान्य रही है, उस संधि के बाद उसे ही माना जाएगा। 
सभ्यता, संस्कृति, इतिहास और भूगोल की दृष्टि से कोई भी दो देश इतनी नजदीकी नहीं रखते हैं जितने कि भारत-नेपाल हैं। 1800 किलोमीटर लंबी सीमा की प्राकृतिक स्थिति ऐसी है कि आप सीमा को एकदम स्थायी रुप से विभाजित नहीं रख सकते। नेपाल जिस सीमा तक चला गया है, उसके बाद भारत के पास कुछ कदम उठाने की मजबूरी हो जाएगी। हर भारतीय नेपाल के साथ अपनत्व का भाव रखता है। भारत का इतिहास कभी दूसरे देश की जमीन हड़पने का नहीं रहा है। प्रधानमंत्री ओली अगर सदियों पुराने संबंधों को नष्ट करने पर तुले हैं तो यह नेपाल के ही अहित में होगा। चीन किसी का दोस्त नहीं, भाई की बात तो छोड़िए। हमारी कोशिश यह होगी कि नेपाल मान जाए और अपना नक्शा वापस ले। अगर नहीं मानता तो जैसी परिस्थिति बनती है, उसके अनुसार कदम उठाने होंगे। 
-मो. 98110-27208