विस्थापन से कोरोना विस्फोट की बढ़ी आवाज़

कार्बी आंगलाग असम का बेहद आंचलिक और शांत जिला है। गांव भी बेहद स्वच्छ और शांत। बीते दिनों वहां की नैसर्गिकता में खलल पड़ गया, जब पता चला कि गांव के एक लड़के को कोरोना संक्रमण है। असल में यह 26 साल का युवक तमिलनाडु मजदूरी करने गया था और हाल ही में घर लौटा था। मप्र में खजुराहो जैसे अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन स्थल के कारण कोरोना के प्रति संवेदनशील कहा जाने वाला छतरपुर जिला बीते पचास दिनों में ग्रीन जोन में होने के बाद अचानक ही नारंगी हो गया, क्योंकि यहां नौगांव व कैथेांकर के दो युवकों को कोरोना के लक्षण पाए गए। ये दोनों दिल्ली में नौकरी करते थे और पिछली 16 मई को कुछ पैदल तो कुछ बस और ट्रैक्टर में सवार हो कर घर आए थे। यदि पूरे देश पर निगाह डालें तो जैसे-जैसे लॉकडाउन के तार ढीले हो रहे हैं और और लोगाें का अपने मूल घरों की ओर पलायन बढ़ रहा है, कोरोना वायरस महानगरों से कस्बों और गांव तक पहुंचता साफ  दिख रहा है। यह कड़वा सच है कि ग्रामीण अंचलों में ना तो जागरूकता है और ना ही माकूल स्वास्थ्य सेवाएं या जांच की सुविधा और यही बात इस आशंका को प्रबल करती है कि पलायन से उपजी त्रासदी कहीं भारत में करोना का सामुदायिक विस्तार न कर दे। 
19 मई तक उप्र के बस्ती जिले में 50 लोग कोरोना पाजीटिव दर्ज हो गए थे। ये सभी उन 78 लोगों में से हैं जो सूरत और मुंबई से अपनी बसें किराए पर ले कर घर आए थे। पूरे उत्तर प्रदेश में केवल एक दिन 19 मई को 166 संक्त्रमित पाए गए और ये सभी विभिन्न महानगरों से हताश हो कर लौटे थे। इस तरह कोई 691 प्रवासी कमागारों के वायरस संक्रमित होने की बात उप्र सरकार भी स्वीकार कर रही हैं।  बिहार के हालत तो और बुरे हैं जहां अभी तक 748 प्रवासी मजदूर  संक्रमित चिन्हित किए गए हैं। इनमें से 24 फीसदी अकेले दिल्ली से लौटे हुए हैं। 179 लोग महाराष्ट्र व 160 गुजरात से आए हैं। झारखंड के गढवा में गुजरात से लौटे 20 लोग,हजारी बाग में 06 और गिरीडीह में चार ऐसे लोग पाए गए जो काम-धंधा छूटने के बाद लुटे-पिटे घर लौटे और उनमें कोरोना के लक्षण हैं। उत्तराखंड में भी यह खतरा मंडरा रहा है। मध्य प्रदेश के 44 जिलों में चार लाख से ज्यादा प्रवासी श्रमिक लौटने के बाद खतरे के बादल घने हो गए हैं। हरियाणा के करनाल, पानीपत, सोनीपत में हर दिन मिल रहे मरीजों का यात्रा-अतीत दिल्ली से लौटने का ही है। सबसे हास्यास्पद यह है कि दिल्ली से नोएडा-गाजियाबाद की सीमा को तो सील किया जाता है लेकिन राज्य में दूसरे राज्यों से आ रहे लाखों प्रवासी कामगारों के लिए कोई रोकटोक नहीं।
प्रवासी कामगारों के अपने घर  आने के साथ कोरोना ले कर आना ही एकमात्र चिंता का विशय नहीं है। असल चिंता यह है कि दिल्ली, मुंबई जैसे महानगर जहां से वे लौटे हैं, कोरोना के विस्फोट केंद्र बन चुके हैं। यह भी लगता है कि अपने इलाके में आंकड़े की बाजीगरी से खुद की पीठ ठोकने की झूठी लिप्सा ने इन श्रमिकों के सामने ऐसे हालात साजिशन पैदा किय गए ताकि ये अपने सुदूरवर्ती मूल निवासों को लौटें और वहां के आंकड़े बिगाड़ें। दिल्ली में लॉकडाउन लगभग खत्म सा है लेकिन बिहार,मप्र और हरियाणा में दिल्ली से आए लोगों में जिस तरह कोरोना पाजीटिव पाया गया है, इससे स्पष्ट है कि राजधानी के भीतर ही भीतर कोरोना ने तगड़ी पकड़ बना ली है।  यह स्वीकार करना होगा कि कोरोना से उपजे भय, बाजार-बंदी , बेरोजगारी के चलते पूरे देश में सड़कों पर आए कई करोड़ लोगों को हमारा नेतृत्व अपनी बात कहने में असफल रहा है। तंत्र उन लोगों को अपने ही स्थान पर बने रहने के दौरान कोई दिक्कत ना होने का आश्वासन देने में भी असफल रहा वरना कोई भी अपने परिवार के साथ पाचं सौ से हजार किलोमीटर तक पैदल जाने की जिद नहीं करता। यह भी जान लें कि इतने बड़े स्तर पर हो रहा पलायन नोबल कोरोना वायरस के विस्तार को थामने के लिए  की गई 50 से ज्यादा दिन की  ‘बंदी’ या लॉक डाउन के समूचे सकारात्मक उद्देश्य को मिट्टी में मिला चुका है। आजादी के बाद के सबसे बड़े सड़क मार्ग के पलायन ने कोरोना से कही अधिक बड़े संकट को जन्म दे दिया। सरकारें अपने इलाकों में रहने वाले नागरिकों को भोजन-मकान-स्वास्थ्य आदि की सामाजिक सुरक्षा देने में असफल रहीं और इसी के कारण बेबस-हताश लोग अपने उस घर की ओर जाने को अधीर हो गए, जहां से कभी वे भूख व बेराजगारी से तंग हो कर महानगरीय जीवन में गुम हुए थे। 
दिल्ली-मुंबई-सूरत जैसे महानगर की आबादी का 40 फीसदी उन कामगारों का है जो इन शहरों का असल में संचालन करते हैं। उन पर बाजार, सुरक्षा, श्रम सब कुछ निर्भर है लेकिन एक कोरोना संकट ने उनके व पूंजीपतियों के बीच स्थापित विश्वास की दीवार को गिरा दिया। महज 40 दिन में ही ‘सभी को भोजन’ की हमारी तैयारी बिखर गई। जो समाज पहले ताली-थाली बजा कर देश के प्रधानमंत्री की बात पर अपनी सहमति दे रहा था, वह उन्हीं की यह बात नहीं माना कि लोगों का वेतन ना काटें, किराएदारों को घर से ना निकालें। परिणाम सामने है कि कितने लाख लोग घरों की तरफ  निकल गए। आदर्श स्थिति तो यह होती कि इतनी बड़ी बंदी करने से पहले ऐसे श्रमिकों के आंकड़े होते, उनके लिए खुले स्थानों पर पर्याप्त दूरी के साथ आवास बनाए जाते चाहे सरकारी स्कूल-भवनों में या खुले में टैंटों के साथ होते। 
इतने लोगों के लिए भोजन, शौच, स्वास्थ्य व्यवस्था की एक कार्ययोजना होती। भारत में आपदा प्रबंधन हर समय समस्या के विकट रूप लेने के बाद प्रारंभ होता है। यह सत्य है कि सड़क पर आ गए इतने सारे लोगों को इतने दिनों तक आसरा देना अब किसी सिस्टम के बस का नहीं रहा। वैसे तो अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संधि की धारा 11 में कहा गया है कि दुनिया के प्रत्येक नागरिक को आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा का अधिकार है। दुखद है कि इतनी बड़ी संख्या में पलायन हो रही आबादी के पुनर्वास की भारत में कोई योजना नहीं थी। साथ ही पलायन रोकने, विस्थापित लोगों को न्यूनतम सुविधाएं उपलब्ध करवाने व उन्हें शोषण से बचाने का ना तो कोई कानून है और ना ही इसके प्रति संवेदनशीलता।