व्यवसायिकता के चक्कर में पर्यावरण के सरोकारों को भूला हिन्दी सिनेमा

जैव-विविधता और पर्यावरण का संरक्षण आज का सबसे बड़ा मुद्दा है। सिनेमा एक सशक्त माध्यम है, जोकि पर्यावरण के मुद्दों पर लोगों को मनोरंजक ढंग से जागरूक कर सकता है। लेकिन मुख्यधारा के सिनेमा की दिक्कत यह है कि उसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर नजर डालने की फुर्सत ही नहीं है। अधिकाधिक पैसा कमाने के चक्कर में सिनेमा ऐसे मुद्दों में उलझा हुआ है, जिनका हमारे जीवन से कोई रिश्ता नहीं है। इस तरह से सिनेमा मनोरंजन को जीवन से अलग करता हुआ नया संसार रच रहा है। खास तौर से बॉलीवुड पर यह बात पूरी तरह से लागू होती है। गिनी चुनी फिल्मों को छोड़ दें तो फिल्में पर्यावरण के मुद्दे पर नजर तक नहीं डालतीं। हां, रोमांस के दृश्यों को फिल्माने के लिए सिनेमा के लोग बाग-बगीचों, पहाड़ों, जंगलों, नदी, नालों, सागरों, जीव-जंतुओं सहित प्रकृति की सुंदरता का जमकर इस्तेमाल करते हैं। लेकिन इनके ऊपर आ रहे संकट और इस कारण मानव जाति पर आ रहे संकट को रेखांकित करने, दर्शाने और लोगों को विचार के लिए तैयार करने के प्रति उदासीनता दिखाते हैं। हालांकि पर्यावरण प्रेमियों का मत है कि यदि मुख्यधारा की फिल्में अपने व्यावसायिक हितों का ध्यान रखते हुए भी पर्यावरण के संकट की तरफ संकेत कर दें तो यह महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। जैसा कि हम पहले कह चुके हैं कि पर्यावरण पर गिनी चुनी फिल्में हैं। इनमें से रेमो डिसूजा निर्देशित सुपर हीरो और ‘फ्लाइंग जट्ट’ मेें पर्यावरण असंतुलन और प्रदूषण की समस्या को प्रमुखता से उठाया गया है। फिल्म में टाइगर श्रॉफ ने सुपरपॉवर से युक्त सिख युवक का किरदार निभाया, जो एक पेड़ को बचाने के लिए विलेन से टक्कर लेता है। फिल्म में हॉलीवुड एक्टर नेथन जोन्स को प्रदूषण का प्रतीक दिखाया गया था। अक्षय कुमार की फिल्म-‘टॉयलेट- एक प्रेम कथा’ स्वच्छता अभियान पर आधारित है, जिसमें महिलाओं के खुले में शौच जाने की विषय को उठाया गया है हालांकि फिल्म सीधे-सीधे पर्यावरण के मुद्दे पर केन्द्रित नहीं है। निखिल आडवाणी की एनिमेशन फिल्म ‘दिल्ली सफारी’ (2012) में जंगलों के अंधाधुंध कटान को दिखाया गया है। पर्यावरण के मुद्दे पर बॉलीवुड में जहां अकाल पसरा है, वहीं हॉलीवुड की बात की जाए तो वहां पर पर्यावरण के मुद्दे पर नियमित रूप से फिल्में बनती हैं। अवतार, 2012, द हैपनिंग, वॉल ई, हैप्पी फीट, द डे आफ्टर टूमॉरो सहित कईं ऐसी फिल्में हॉलीवुड में बनी हैं, जिनमें पर्यावरण संरक्षण के मुख्य सरोकार हैं।मुझे बंगाल के अकाल पर केन्द्रित धरती के लाल फिल्म बनाने वाले ख्वाज़ा अहमद अब्बास द्वारा राजस्थान के जल संकट पर बनाई गई फिल्म- ‘दो बूंद पानी’ जल एवं पर्यावरण के मुद्दे पर महत्वपूर्ण फिल्म दिखाई देती है।  ‘दो बूंद पानी’ फिल्म के जरिये पानी के विषय को बहुत यथार्थपरक ढंग से उठाया गया है, जो मौजूदा दौर की एक ज्वलंत समस्या है। पानी के अंधाधुंध दोहन व प्रदूषण के चलते विकराल होती समस्या भविष्य में मानव जाति को गहरे संकट की ओर धकेल सकती है। फिल्म की विशेषता यह है कि यह पानी की कमी और पानी की अधिकता दोनों क्षेत्रों के लोगों को पानी की अहमियत बड़े मार्मिक ढंग से समझाती है। दूसरे, यह फिल्म निराशा के वातावरण में हमें अवसाद से निकाल कर आशा व उम्मीद जगाने का काम करती है। फिल्म में आशा-निराशा और निष्क्रियता व कर्म के अंत तक संघर्ष चलता है। गांव में अकाल आने पर फिल्म का हरी सिंह अपनी जमीन छोड़ने से इन्कार कर देता है। अकाल व जल संकट के कारण सभी परिवार गांव छोड़ चुके हैं। हरी सिंह अपने बेटे गंगा सिंह को गांव में नहर लाने के लिए डैम बनाने के लिए भेजता है और आखिरी समय तक नहर के आने का इंतजार करता है। लंबी दूरी तय करके फिल्म की नायिका गौरी व सोनकी पानी लेकर आती हैं। इस पानी से कभी ही कोई नहा पाता है। जब थोड़े पानी से कोई नहाता है तो यह उत्सव का क्षण होता है। अन्तर्जातीय विवाह, जाति व्यवस्था, गरीबी सहित सामाजिक समस्याओं के बीच पानी एक मुख्य समस्या है। पानी के संकट के कारण समाज में अपराध बढ़ते हैं। पानी आने पर सभी अपराध समाप्त होने की कल्पना की जाती है। हालांकि ‘दो बूंद पानी’ फिल्म व्यावसायिक एवं बॉक्स ऑफिस पर सफलता नहीं प्राप्त कर पायी, लेकिन पानी व पर्यावरण के मुद्दे पर बनी फिल्मों में यह एक यादगार दस्तावेज है। हालांकि फिल्म 1971 में रिलीज हुई थी, लेकिन इसे देखा जाना आज भी प्रासंगिक है।