कला के कालजयी पुरोधा पाब्लो पिकासो

बात जब आधुनिक व समकालीन कला की आती है तो जो नाम सबसे पहले हमारे जेहन में उभरता है, वह है पाब्लो पिकासो। 25 अक्तूबर 1881 को मलाबा, स्पेन में एक कला शिक्षक के घर पैदा हुए पाब्लो का निधन 8 अप्रैल 1973 को फ्रांस में हुआ था। बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस कलाकार ने अपनी कृतियों से देश दुनिया में जो अपरिमित यश और असाधारण ख्याति पायी, वह सौभाग्य किसी अन्य के हिस्से आज तक नहीं आया। अपनी कला में जितने सफल प्रयोग इस कलाकार ने किए, उसका कहीं कोई दूसरा उदाहरण भी नहीं मिलता है। आमतौर पर कलाकारों के साथ एक विडंबना देखी जाती है कि उसकी कृतियों को कला बाजार में उसके जीते जी उतनी सफलता नहीं मिल पाती है, जितना उसके मरने के बाद। जिसका सबसे उपयुक्त उदाहरण वानगॉग जैसे कलाकार रहे। पिकासो इस मायने में भी अपने समय के सबसे सफल कलाकार रहे यानी उनकी कलाकृतियां सदैव महंगी कलाकृतियों में शामिल रहीं। उनसे जुड़ा एक दिलचस्प वाकया है कि एक बार अचानक मिली एक महिला ने उनसे अनुरोध किया कि वह उसके लिए कोई चित्र बना दें। ऐसे में जबकि चित्र बनाने की पर्याप्त सामग्री वहां उपलब्ध नहीं थी, पिकासो ने एक कागज पर पेन से रेखाचित्र बना दिए। महिला द्वारा उसकी कीमत पूछने पर पिकासो ने करोड़ों में मूल्य बताया। महिला को सहसा विश्वास नहीं हुआ किन्तु जब उसने एक आर्ट डीलर से चित्र का मूल्यांकन करवाया तो सचमुच उस चित्र की वही कीमत लगाई गई जो पिकासो ने कहा था। बहरहाल यह वाकया तत्कालीन कला बाज़ार में उनके चित्रों की मांग को दर्शाती है। उनकी बहुमुखी कला प्रतिभा को इसी बात से समझा जा सकता है कि चित्रकला के अतिरिक्त मूर्तिकला, सेरेमिक्स व प्रिंट मेकिंग माध्यम में भी उन्होंने काम किया। कला अध्यापक पिता से चित्ररचना की प्रेरणा व मार्गदर्शन पाकर पिकासो ने कम उम्र में ही चित्रकला को अपना लिया था। 14 साल की किशोरावस्था में बार्सीलोना चित्रकला संस्था में प्रवेश परीक्षा के क्रम में ही एक दिन में उतनी चित्र रचनाएं कर नामांकन की अर्हताएं पूरी की, जितना सामान्य छात्र महीने भर में पूरा कर पाते थे। बार्सीलोना के बाद मेड्रिड से होते हुए कला का यह स़फर अंतत: 1904 में इन्हें पेरिस ले आया। पेरिस आने से पूर्व 1901 से 1904 तक उन्होंने जो चित्र बनाये, उनमें नीले रंगों की प्रमुखता थी। उनके इस दौर को कला इतिहास में आज हम ब्लू पीरियड के तौर पर जानते हैं। जहां तक विषय की बात है तो इन चित्रों में सामान्यजन यथा भिखारी, स्ट्रीट सिंगर व मेहनतकशों का चित्रण है। यह विषय चयन इस कलाकार के मानवतावादी दृष्टिकोण को रेखांकित करता है।वर्ष 1905 के बाद के उनके चित्रों में नीले रंग की जगह गुलाबी रंगों ने ले ली, किन्तु विषय के तौर पर केन्द्रबिंदु कमोबेश आम आदमी या कामकाजी समाज ही रहा। इसी क्रम में सेजान के चित्रों को देखने के बाद पिकासो आदिम व जनजातीय कला से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। इन चित्रों की सहज अंकन शैली से प्रभावित पिकासो ने सहज प्रवृत्तियों द्वारा सर्जन का संदेश आत्मसात किया। 1906 से 1908 के इस दौर के उनके चित्रों में आविन्यों की स्त्रियां शीर्षक चित्र महत्वपूर्ण समझी जाती है। इसके बाद उन्होंने अपनी शैली में जो बदलाव किया वह घनवाद यानी क्यूबिज्म की श्रेणी में रखा गया। चित्र रचना के आधार पर उनके चित्रों को ब्लू पीरियड व रोज पीरियड के अलावा अप्रीकन प्रभाव वाला पीरियड (1907-1909), एनालिटिकल क्यूबिज्म यानी विश्लेषणात्मक घनवाद (1912- 1919), नवशास्त्रीय (नियोक्लासिकल) व यथार्थवाद या अतियथार्थवाद की श्रेणी में वर्गीकृत किया गया। घनवाद व फाववाद के अलावा कोलाज माध्यम में चित्रों के निर्माण जैसे प्रयोगों के लिए भी उन्हें जाना जाता है। यही नहीं कवि, नाटककार और नाटकों के लिए सैट डिजाइन जैसे कामों को भी उन्होंने बखूबी अंजाम दिया। कलाविदों के अनुसार उनके अतियथार्थवादी एवं घनवादी शैलियों का भावनात्मक उत्कर्ष 1937 में बनाये गये विश्वविख्यात चित्र गुर्येनिका में परिलक्षित होता है। रूपाकारों के पर्याप्त सरलीकरण के द्वारा घोड़ा, सांड व रोती हुई स्त्री के माध्यम से युद्ध की विभीषका को चित्रित किया। इसके संदर्भ में पिकासो का कथन था कि यहां बैल का चित्रण तानाशाही के प्रतीक रूप में नहीं किया गया है बल्कि वह पाशवी अत्याचार व अन्याय का प्रतीक है, घोड़ा यहां जनता का प्रतीक है। एक चित्रकार की क्या भूमिका होनी चाहिए इसको वर्णित करता उनका महत्वपूर्ण कथन है- आपकी कलाकार के बारे में क्या धारणाएं हैं ? क्या वह एक ऐसा बुद्धिहीन प्राणी है, जो केवल आंखों से देख सकता है यदि वह चित्रकार है, यदि वह संगीतकार है तो केवल कानों से सुन सकता है, कवि के तौरपर उसकी सारी शक्ति क्या केवल दिल में ही है। इन सबके इतर किसी भी रचनाकार का राजनैतिक विचार भी होता है। जिस समाज के कारण कलाकार को इतना अनुभूतिपूर्ण जीवन प्राप्त होता है, उसके प्रति उपेक्षा भाव रखकर सिर्फ  स्वान्त:सुखाय कलासाधना करते रहना कलाकार के लिए कैसे संभव है? पिकासो ने न केवल अपने चित्रों या चित्र श्रृंखलाओं के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति को मुखरित किया, एक मूर्तिकार के तौर पर भी उन्होंने कला जगत को समृद्ध किया। पिकासो के विचार से कला के लिए कला एक अर्द्धसत्य है, कला को किसी भी हाल में मानवीय जीवन के संपूर्ण सत्य से अलग नहीं किया जा सकता है। कलाकार के सिर्फ  मौन साधक बने रहने के बजाय वह आवश्यकता पड़ने पर मुखरता बरतने के भी हामी थे। किसी पूर्वनिश्चित धारणा के बंधन से मुक्त रहकर विशाल व बहुरंगी दुनिया से निरंतर प्रेरणा लेकर सृजनरत रहना उनकी प्राथमिकता थी। उनके चित्रों के वर्गीकरण के आधार पर कलाविदों और समीक्षकों ने भले ही तमाम शैलियों से उन्हें चिन्हित किया हो, लेकिन वह अपने को किसी शैलीबंधन से मुक्त मानते थे। अपने एक मित्र से उन्होंने कहा था- मैं एक शैलीविहीन चित्रकार हूं। कला के सारतत्व के तौर पर उनका यह कथन अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाता है- अन्त में सबका मूल प्रेम है, अब उसका साक्षात्कार आपको किसी भी रूप में हो। वास्तव में इन चित्रकारों की आंखें निकाल देनी चाहिए जैसे कि गोल्डफिंच पक्षी की निकाल देते थे, जिससे कि वह अधिक मधुर स्वरों में गा सके। दरअसल उनके इस कथन की मूल भावना यह थी कि कोई भी व्यक्ति तब तक सच्चा कलाकार या साधक नहीं हो सकता है, जब तक कि अपने अंतर्मन की दृष्टि से दुनिया को देखने समझने की क्षमता विकसित न कर ले।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर