मोक्ष का मार्ग

अकेला ज्ञान मुखौटा है तो अकेला आचरण भी मुखौटा है और मुखौटा सदैव दु:ख का कारण बनता है। मनुष्य का सबसे बड़ा दु:ख यही है कि वह हर वक्त एक मुखौटे में रहता है। जो वह नहीं, वह अपने असली चेहरे में न दिख जाए। सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र के बिना मुखौटों से छुटकारा पाना संभव नहीं है। आचार्य उमास्वामी ने दर्शन, ज्ञान और चरित्र को एक साथ ही एक विश्लेषण सम्यक के तहत और मार्ग को एकवचन में रखते हुए उन्हें मोक्ष का मार्ग कहा है। उनका यह कथन कि ‘सम्यग्य दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्ग:’ (तत्तवार्थ सूत्रा 1.01) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चरित्रा तीनों मिलकर मोक्ष का मार्ग ह बनता है जो हमारी दृष्टि को इन तीनों के अभेदत्व पर बनाए रखता है। इन्हें ही ‘रत्नत्राय’ कहा गया है। विघटित/विभाजित व्यक्तित्व को समग्रता और एकाग्रता की दिशा इन्हीं के अभेदत्व से मिलती है। मोक्षमार्ग पर अग्रसर होने के लिए सम्यग्दर्शन की जरूरत है। दर्शन अभ्यन्तर का विषय है, ज्ञान बाह्य पदार्थों का भी सही बोध होगा। सम्यग्य ज्ञान हमें उन तत्वों की यथार्थ जानकारी देता है जिनके प्रति हमारे भीतर पहले अगाध और सम्यक श्रद्धा जन्म ले चुकी है।  दर्शन से ही किसी चीज/तत्व को जानने की प्रवृत्ति पैदा होती है। इसलिए ऊपर  तत्वार्थ के सूत्र में सम्यग्दर्शन का उल्लेख सम्यग्ज्ञान से पहले किया गया है। सम्यग्दर्शन पासपोर्ट है, सम्यग्ज्ञान वीजा। पासपोर्ट के बाद ही तो वीजा मिलेगा। पिछले जन्म या जन्मों में अर्जित की गई सात्विकता के कारण सम्यग्दर्शन खुद व खुद हमारे भीतर उत्पन्न हो सकता है। स्वभाव से उत्पन्न हुआ यह निसर्गज सम्यग्दर्शन है। देव, शास्त्र, गुरु का निमित्त पाकर भी तत्वार्थ के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो सकती है। यह अध्गिमज सम्यग्दर्शन है। महावीर का सम्पूर्ण चिंतन एकांत रूप से आत्मा पर ही एकाग्र है। आत्मा और देह से आत्मा की पृथकता पर अगाध अटूट श्रद्धन ही सम्यग्दर्शन है। अदृश्य होने पर भी यह स्वसंवेदन व्यक्ति के प्रत्यक्ष अनुभव में आता है। आत्मा का ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान और आत्मा में वर्तन ही सम्यक चारित्रा है। इस रत्नत्राय से संबंध्ति से सम्पन्न होते ही व्यक्ति के लिए देह की कोई औकात नहीं रह जाती और जिसके लिए देह की कोई औकात नहीं रह गई हो, उसके पास देह की संतानें, हिंसा, क्रोध, लोभ, मोह, परिग्रह, चोरी आदि भला कैसे फटकेगी ? महावीर देह को महत्व ही नहीं देते। वह तलवार का मोल करते हैं, म्यान को पड़ा रहने देते हैं।जैन शास्त्रों ने सम्यग्यदर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक चरित्र के परम अर्थ अर्थात् निश्चय से किए गए अर्थ का व्यवहार दृष्टि से भी विस्तृत और पांडित्यपूर्ण विवेचन किया है। अनेक भेदों, प्रभेदों, अंगों, उपांगों, आचारगत, विधि-विधनों आदि में वर्गीकृत वह विवेचन परोक्ष और स्थूल लग सकता है, पर कई बार सूक्ष्म और प्रत्यक्ष के लिए रास्ता क्या स्थूल और परोक्ष से ही होकर नहीं जाता ? फिर सिद्धांत की झलक हमें व्यवहार में ही तो मिलती है।व्यक्ति सत्ता पर महावीर का अटूट विश्वास है। इसलिए सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र से सम्पन्न व्यक्ति को महावीर कोई निर्देश देना नहीं चाहते। उनकी दृष्टि में वह तो खुद उनके बराबर है। सच्चा लोकतंत्र सबसे निचले पायदान पर खड़े अपने सदस्य मनुष्य को सबसे ऊंचे पायदान पर पहुंचने की छूट देता है। महावीर के विराट लोकन्त्रात्मक चिंतन में यह छूट जीव मात्र को है। कोई भी प्राणी महावीर बन सकता है। (सुमन सागर)