धरती के थरथराने का तेज होता जा रहा सिलसिला 

पिछले करीब दो महीने से भूकम्प के झटकों ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के साथ ही हरियाणा और पंजाब के एक बड़े हिस्से भी को भयाक्रांत कर रखा है। इस दौरान कुल 11 बार लोगों ने भूकम्प के झटकों को महसूस किया है। हालांकि  इन झटकों की वजह से जान-माल का कोई नुकसान नहीं हुआ, लेकिन भूकम्प महसूस होना ही एक बार में पूरे जीवन के कम्पन का महसूस होने जैसा होता है। फिर यह झटके तो कोढ़ में खाज की तरह रहे, क्योंकि इस समय लोग पहले से ही कोरोना महामारी के संकट से जूझते हुए अपने-अपने घरों में कैद हैं। जिस पैमाने से भूकम्प को मापा जाता है, उस पैमाने पर भूकम्प के इन सभी झटकों की तीव्रता रिक्टर स्केल पर 2.0 से 4.5 तक थी। उल्लेखनीय है कि भूकम्प के लिहाज से दिल्ली को हमेशा ही संवेदनशील इलाका माना जाता है। भू-वैज्ञानिकों ने भूकम्प की अधिक तीव्रता के लिहाज से देश को चार अलग-अलग ज़ोन में बांट रखा है। ज़ोन-5 को सबसे ज्यादा संवेदनशील माना जाता है। उत्तर-पूर्व के सभी राज्य, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्से तथा गुजरात का कच्छ इलाका ज़ोन-5 में ही आते है।इसी तरह ज़ोन-2 सबसे कम संवेदनशील माना जाता है। इसमें तमिलनाडु, राजस्थान और मध्यप्रदेश का कुछ हिस्सा, पश्चिम बंगाल और हरियाणा का कुछ हिस्सा आता है। यहां भूकम्प की संभावना कम रहती है। ज़ोन-3 में केरल, बिहार, पंजाब, महाराष्ट्र, पश्चिमी राजस्थान, पूर्वी गुजरात, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश का कुछ हिस्सा आता है। इस जोन में भूकंप के झटके आते रहते हैं।ज़ोन-4 में वे इलाके आते हैं जहां रिक्टर स्केल पर 7.9 की तीव्रता तक का भूकम्प आ सकता है। इस जोन में मुम्बई, दिल्ली जैसे महानगर, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पश्चिमी गुजरात, उत्तराखंड के कम ऊंचाई वाले हिस्सों से लेकर उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाके और बिहार-नेपाल सीमा के इलाके शामिल हैं। यहां भूकम्प का खतरा लगातार बना रहता है और रुक-रुक कर भूकंप आते रहते हैं। दरअसल, भूकम्प ऐसी प्राकृतिक आपदा है, जिसे न तो रोक पाना मुमकिन है और न ही उसका अचूक पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। वैसे भूकम्प हमारे लिए कोई नई प्राकृतिक परिघटना नहीं है। यह सदियों से मनुष्य जाति को डराता रहा है। भूकम्प कैसे आता है या धरती क्यों डोल उठती है, इस बारे में तरह-तरह की कहानियां प्रचलित रही हैं। प्राचीन सभ्यताओं ने धरती के थरथराने की घटनाओं को तरह-तरह के मिथकों से जोड़कर समझने की कोशिश की है। ज्यादातर का मानना रहा है कि पृथ्वी किसी विशालकाय जंतु, जैसे शेषनाग, कछुआ, मछली, हाथी की पीठ पर या फिर किसी देवता के सिर पर टिकी हुई है और जब कभी वे अपने शरीर को हिलाते हैं, तो धरती डोल उठती है। भारतीय मिथक यह है कि धरती शेषनाग के फण पर स्थित है और जब भी वह अपना फन सिकोड़ते या फैलाते हैं, तब धरती थरथरा उठती है। यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने जमीन की गहराइयों में बहने वाली हवाओं को भूकम्प का कारण माना था, जबकि महात्मा गांधी की मान्यता थी कि जब धरती पर पाप की बहुतायत हो जाती है, तब वह क्रुद्घ होकर डोलने लगती है। दुनिया के और भी कई दार्शनिकों और चिंतकों की इस बारे में अपनी-अपनी मान्यताएं होंगी। जो भी हो, भूकम्प इस मिथक का खंडन करता है कि धरती एक स्थिर बनावट है। धरती के बारे में मनुष्य जितना जानता है, भूकम्प के कारण वह जानकारी संदिग्ध न हो जाए, इसलिए भी भूकम्प के बारे में कोई न कोई कहानी गढ़नी पड़ती है। भू-गर्भशास्त्रियों के मुताबिक धरती की गहराइयों में स्थित प्लेटों के आपस में टकराने से धरती में कंपन पैदा होता है। इस कंपन या कुदरती हलचल का सिलसिला लगातार चलता रहता है। वैज्ञानिकों ने भूकम्प नापने के आधुनिक उपकरणों के जरिए यह भी पता लगा लिया है कि हर साल लगभग पांच लाख भूकम्प आते हैं यानी करीब हर एक मिनट में एक भूकम्प। इन पांच लाख भूकम्पों में से लगभग एक लाख ऐसे होते हैं, जो धरती के अलग-अलग भागों में महसूस किए जाते हैं। राहत की बात यही है कि ज्यादातर भूकम्प हानिरहित होते हैं।जिस पृथ्वी को हम जानते हैं, वह तो वैसे भी बचने वाली नहीं है। कई बार हिम युग आ चुके हैं, जिनमें सब कुछ बर्फ  से ढंका था। तब न हमारे पूर्वज थे और न ही कोई जीव-जंतु। कुछ वैज्ञानिकों की मान्यता है कि जिस तेजी से पृथ्वी गरम हो रही है, उससे हिमशिखरों के पिघलने का सिलसिला शुरू हो गया है। एक समय ऐसा आएगा कि सारे हिमशिखर पिघल जाएंगे और समुद्र में इतना पानी आ जाएगा कि वह अपने आसपास की बस्तियों या देशों को प्लावित कर देगा। वैज्ञानिकों का मानना है कि सूर्य का भी एक दिन अंत होना तय है। वह भी एक बौना तारा बन कर रह जाएगा और ऐसी स्थिति में पृथ्वी पर कहीं भी जीवन का नामोनिशान नहीं बचेगा। जीवन की तरह मृत्यु का भी चक्र है।भूकम्प को लेकर वैज्ञानिक निष्कर्ष जो भी हों, यह तो तय है कि भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाएं हमें यह याद दिलाने नहीं आती हैं कि हम अब तक प्रकृति पर पूरी तरह विजय नहीं पा सके हैं। वैसे भी प्रकृति को इतनी फुरसत कहां कि वह हमारे ज्ञान और भौतिक क्षमता की थाह लेती रहे। प्रकृति दरअसल चाहती क्या है, यह एक ऐसा रहस्य है जिसका भेद शायद कभी नहीं खुलेगा और खुल भी गया तो मनुष्य के लिए करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं रहेगा क्योंकि हम प्रकृति के नियमों को जानकर उनका आनंद ही उठा सकते हैं, प्रकृति के निजाम में कोई बड़ा दखल नहीं दे सकते। (संवाद)