कोरोना काल : उपेक्षित मज़दूर 

कोरोना वायरस के विध्वंश को लेकर पूरी दुनिया जान चुकी है। हालांकि उत्साह इस बात को लेकर बढ़ाया जा रहा है कि भारत की स्थिति अन्य देशों से बेहतर है। ऐसा मृत्यु दर को देखते हुए कहा जा रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना वायलरस के फैलते संक्रमण के बीच कुछ तथ्य दुनिया के सामने रखे हैं जिनका अध्ययन करने पर पता चलता है कि संक्रमितों की संख्या एक लाख के पार हो जाने के बावजूद किसी भी भारतीय को कोरोना से आतंकित होने की ज़रूरत नहीं है लेकिन बचाव और सावधानी की ज़रूरत है। भारत में संक्रमण की प्रति व्यक्ति दर सबसे कम है। परन्तु भारत में तीन हज़ार से अधिक लोगों की जान जा चुकी है जबकि हमारे लिए एक-एक व्यक्ति की जान कीमती है। सबसे बेहतर बचाव कोरोना की चेन तोड़ने में है। हम इसीलिए लाकडाऊन लगातार बढ़ा रहे हैं। परन्तु एक बड़ा सवाल सामने आ रहा है कि लाकडाऊन फिर लाकडाऊन कहीं हमें आर्थिक मोर्चे पर इतना न गिरा दे कि हमें संभलने का फिर मौका ही न मिले। दिल्सी सरकार और कुछ अन्य सरकारें इसे लेकर फिक्रंमंद नज़र आईं। जब रैवन्यू ही नहीं आएगा तो सरकार कब तक और कितनी जिम्मेदारियां उठा पाएंगी? जब महीनों तक पूरी जनता का कामकाज रूका हुआ है। आम जनता के भोजन का सवाल कैसे निपट सकेगा? इधर मज़दूरों के पलायन की समस्या दिन व दिन विकट होती रही है। मुम्बई, गुजरात, पंजाब, हरियाणा सभी जगह से मज़दूर किसी भी तरह अपने घरों तक पहुंचना चाहते थे। एक स्वर में वे पुकारते रहे कि हम जाएंगे, यहां नहीं रहेंगे। मज़दूरों को लेकर केन्द्र और प्रांतीय सरकारों के पास लाकडाऊन के दिनों में कोई योजना या पहलकदमी नज़र नहीं आई। पहले कहा गया कि वे जहां हैं वहीं रहेंगे। सरकार उनके भोजन-पानी, दवा आदि की व्यवस्था कर रही है। जो लोग सामने आए, उनको भोजन मिला, राशन मिला परन्तु जो पिछड़ गए वे पिछड़े ही रह गए। फिर तय हुआ स्पैशल गाड़ियों द्वारा उन मज़दूरों को जो घर जाना चाहते हैं, भेज दिया जाएगा। इससे लिए भी गाड़ियां कम थीं। जाने वाले मज़दूरों की संख्या कहीं ज्यादा। स्टेशन तक आने-जाने के साधन नहीें थे। वे घंटों पैदल चल कर आधी-अधूरी जानकारियां लिए सामान के पीपे, बोरे उठाए स्टेश्नों पर पहुंचे और निराश होकर लौट आए। किसी ने दो-तीन सौ किलोमीटर यात्रा पैदल करने की ठान ली। राजनीतिक मोहरे यहां भी चल गए। एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यरोप का सिलसिला चल निकला। अब सवाल सामने है कि यदि आठ करोड़ मज़दूर वापस नहीं लौट कर आया तो मुम्बई, दिल्ली की वास्तविक दशा क्या होगी? कारखाने-फैक्टरियां के मालिकों के बारे उनके  विचार क्या होंगे, जिन्होंने कठिन समय में उनकी बाजू नहीं पकड़ी। चीन से अब तीन हज़ार कम्पनियां चीन छोड़ कर निकलना चाहती हैं। भारत के पूंजीपति उनको आकर्षिक करने की कोशिश में रहेंगे। अब सोचा यह जाने लगा है कि काम के घंटे आठ-नौ घंटों के जगह बारह घंटे कर दिया जाये। यह कितना मानवीय है और कितना अमानवीय। इस पर बहस चलनी ही चाहिए। बारह घंटे काम का मतलब है एक वर्कर की व्यक्तिगत ज़िन्दगी को तबाह कर देना। इससे वर्कर की कार्यक्षमता भी प्रभावी हो सकती है, ऐसा मनोवैज्ञानिक कह रहे हैं।