नारी वर्ग के लिए आज भी आदर्श : रानी लक्ष्मीबाई

आज हम जिस रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान दिवस पर उन्हें श्रद्धा पुष्प अर्पित कर रहे हैं, वो उस वीरता, शौर्य, साहस और पराक्रम का नाम है जिसने अपने छोटे से जीवन काल में वो मुकाम हासिल किया जिसकी मिसाल आज भी दुर्लभ है। ऐसे तो बहुत लोग होते हैं जिनके जीवन को या फिर जिनकी उपलब्धियों को उनके जीवन काल के बाद सम्मान मिलता है लेकिन अपने जीवन काल में ही अपने विरोधियों के दिल में भी एक सम्मानित जगह बनाने वाली विभूतियां बहुत कम होती हैं। रानी लक्ष्मीबाई ऐसी ही एक शख्सियत थीं। एक नारी मात्र 25 वर्ष की आयु में अपने पति और पुत्र को खोने के बाद भी अंग्रेजों को युद्ध के लिए ललकारने का जज्बा रखती हो वो नि:संदेह हर मानव के लिए प्रेरणा-स्रोत बनी रहेंगी। सन्1857 की क्रांति से बौखलाये अंग्रेजों ने भारतीयों पर और अधिक अत्याचार करने शुरू कर दिए थे। बड़े से बड़े राजा भी अंग्रेजों के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। ऐसे समय में एक नारी की दहाड़ ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी।  रानी लक्ष्मीबाई की इस दहाड़ की गूंज झांसी तक सीमित नहीं रही, वो पूरे देश में ना सिर्फ  सुनाई दी बल्कि उस दहाड़ ने देश के बच्चे बच्चे को हिम्मत से भर दिया। परिणाम स्वरूप धीरे-धीरे देश भर के अलग अलग हिस्सों में होने वाले विद्रोह सामने आने लगे। दरअसल झाँसी के लिए, अपनी मातृ भूमि की स्वतंत्रता के लिए, अपनी प्रजा को अत्याचारों से मुक्त कराने के लिए रानी लक्ष्मीबाई के  दिल में जो आग  धधक रही थी, उसे 1858 में उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दे कर पूरे भारत में फैला था। उन्होंने अपनी स्वयं की आहुति से उस यज्ञ अग्नि को प्रज्वलित किया जिसकी पूर्ण आहुति 15 अगस्त1947 को डली। हालांकि 18 जून 1858 को रानी लक्ष्मीबाई अकेले होने के कारण अपनी झाँसी नहीं बचा पाईं लेकिन देश को बचाने की बुनियाद अवश्य खड़ी कर गईं। उनके साहस और पराक्रम का अंदाजा जनरल ह्यू रोज के इस कथन से लगाया जा सकता है कि अगर भारत की एक फीसदी महिलाएं लक्ष्मीबाई की तरह आज़ादी की दीवानी हो गईं तो हम सब को यह देश छोड़कर भागना पड़ेगा। कल्पना कीजिए , उस नारी की जिसकी पीठ पर नन्हा बालक हो उसके मुँह में घोड़े की लगाम हो और उसके दोनों हाथों में तलवार!!  हमारे लिए यह कल्पना करना इतना मुश्किल भी नहीं है क्योंकि हमने उनकी मूर्तियाँ देखीं  हैं, उनकी ऐसी तस्वीरें देखी है। इसीलिए वो आज भी जिंदा है और हमेशा रहेगी। वो अमर है और सदियों तक रहेगी। अंग्रेज बेशक रानी लक्ष्मीबाई से  जीत गए थे लेकिन वो इस लड़ाई को जीत कर भी एक महिला के उस पराक्रम से हार गए थे जो एक ऐसे युद्ध का नेतृत्व निडरता से कर रही थी जिसका परिणाम वो पहले से जानती थी। वो एक महिला के उस जज्बे से हार गए थे जो अपने दूध पीते बच्चे को कंधे पर लादकर रणभूमि का बिगुल बजाने का साहस रखती थी। शायद इसीलिए वो उनका सम्मान भी करते थे। उस दौर के कई ब्रिटिश अफसर बेहिचक स्वीकार करते थे कि महारानी लक्ष्मीबाई बहादुरी, बुद्धि,  दृढ़ निश्चय और प्रशासनिक क्षमता का दुर्लभ मेल हैं और उन्हें वो अपना सबसे खतरनाक शत्रु मानते थे। आज जब 21 वीं सदी में हम 19 वीं सदी की एक महिला की बात करके उन्हें याद कर रहे हैं उनके बलिदान दिवस पर उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं तो यह सिर्फ  एक रस्म अदायगी नहीं होनी चाहिए। केवल एक कार्यक्रम नहीं होना चाहिए बल्कि एक ऐसा अवसर होना चाहिए जिससे हम कुछ सीख सकें।