बहुत गम्भीर है मानसिक दबाव की समस्या

ज़ख्म सिर्फ दिखाई देने वाले ही नहीं होते, कुछ अंदरुनी भी होते हैं। आंतरिक ज़ख्मों को भूलना कोई नयी बात नहीं है और न ही इन आंतरिक ज़ख्मों की पीड़ा न सहन करते हुए जीवन से आंखें बंद कर लेने का अमल नया है। परन्तु हर हादसे का बाद समाज एक नई ऐनक की तलाश करता है, जिससे कि वह आंतरिक ज़ख्मों को देख सके, उनको समय रहते पहचान सके। परन्तु क्या बंद आंखों पर ऐनक लगाने से सही परिणाम आने की उम्मीद की जा सकती है?
हाल ही में बालीवुड के एक अज़ीज़ अदाकार सुशांत सिंह राजपूत ने अपने ही घर में फंदा लगाकर आत्महत्या कर ली। अचानक मिले इस समाचार से फिल्म जगत में और सोशल मीडिया पर एक दुखद हैरानी पसर गई। बात मानसिक दबाव से शुरू होकर बालीवुड में होने वाली गुटबंदी पर जा पहुंची। इस गुटबंदी से समर्थन और विरोध में जुटे लोग आपसी गुटबाजी के संकीर्ण दायरों में जकड़े नज़र आए। परन्तु इस संभावित अनुमानों में मुख्य प्रश्न जैसे कहीं गुम हो गए हों-
* क्या मानसिक दबाव इतनी बड़ी समस्या है कि इन्सान आत्महत्या जैसा कदम उठाने को मजबूर हो जाए?
* क्या मानसिक बीमारी का समय रहते पता नहीं लगाया जा सकता?
* क्या शौहरत की इतनी बुलंदियां छूने वाले, सुख-सुविधाओं की दुनियावी परिभाषा पर खरा उतरने वाला मनुष्य भी दिमागी तौर पर परेशान हो सकता है?
*क्या कोरोना महामारी ने इस मानसिक बीमारी की गांठों को और कस दिया है?
सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या ने समाज को प्रश्नों की उलझन मे खड़ा कर दिया है। परन्तु यह प्रश्न इस कदर अंधेरे की गरत में जकड़े हुए हैं कि इनके हमारे चारों ओर बिखरे होने के बावजूद हम इनको तह तक महसूस नहीं करते जब तक पैरों में ठोकर न लगे। राजपूत की मौत एक ठोकर है, जिसके बाद यह प्रश्न चर्चाओं का रूप अपना रहे हैं। इन चर्चाओं को चलाए रखने की एक कोशिश हम भी करते हैं-
मानसिक दबाव-गंभीर बीमारी?
मानसिक तनाव एक मानसिक बीमारी है। मानसिक बीमारियों के अन्य रूपों  में चिन्ता Anxiety), Bipolar Disorderआदि और भी कई किसमें आती हैं। परन्तु मानसिक दबाव और चिन्ता के ऐसे बड़े रंग हैं, जिससे लोग सब से अधिक पीड़ित हैं। भारत का शुमार शीर्ष के उन 10 देशों में दूसरे स्थान पर है जहां प्रत्येक एक लाख की आबादी के पीछे आत्महत्या करने वालों की संख्या सबसे अधिक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) के आंकड़ों के अनुसार भारत में एक लाख की आबादी के पीछे 16.3 प्रतिशत लोग आत्महत्या करते हैं। भारत के अतिरिक्त रूस में यह संख्या अधिक, 26.5 प्रतिशत है जबकि जापान में 14.3, अमरीका में 13.7, और फ्रांस में 12.10 प्रतिशत है। 
यदि सिर्फ भारत में हो रही आत्महत्याओं पर नज़र डालें तो जहां मानसिक बीमारियों से तंग आकर 2013 में आत्महत्या करने वालों की संख्या 8006 थी तो 2018 में यह संख्या 10,134 पर पहुंच गई। इस बीमारी की गंभीरता के बावजूद मानसिक सेहत लेकर भारत का रवैया काफी ढीला है। वैसे तो कुल बजट में स्वास्थ्य मामलों पर रखी जाने वाली कुल राशि काफी कम है। उस स्वास्थ्य बजट में से मानसिक स्वास्थ्य का हिस्सा काफी सिर्फ 0.06 फीसदी है। जबकि बंगलादेश जैसे छोटे देश में भी मानसिक स्वास्थ्य के लिए 0.44 प्रतिशत राशि रखी गई है। 2018-19 के बजट में मानसिक स्वास्थ्य हेतु 50 करोड़ रुपये रखे गए हैं, जोकि 2019-20 के बजट में से कम होकर 40 हज़ार करोड़ रुपए हो गए हैं। 130 करोड़ की जनसंख्या के मुताबिक अनुमानित मानसिक स्वास्थ्य पर बहुत कम राशि  रखी जाती है।साईंस के जनरल ‘द लैंसेट’ के अनुसार भारत में 19.73 करोड़ लोग मानसिक बीमारी से पीड़ित हैं। इनमें से 4.57 करोड़ मानसिक दबाव से और 4.49 करोड़ लोग चिंता की समस्या से दो-चार हो रहे हैं। यह रुझान 14 वर्ष की उम्र से ही सामने आने लग जाता है।आंकड़ों के इस समूह में एक बड़ा तथ्य यह भी है कि इनमें से 80 प्रतिशत लोग कभी भी किसी पेशेवर से सहायता लेने के लिए सम्पर्क नहीं करते। भाव लगभग 15.78 करोड़ लोग बिना किसी को अपनी तकलीफ, अपना बोझ बताए, अपने साथ-साथ यह बीमारी लिए घूमते हैं और जब यह बोझ असहनशील हो जाता है तो उनको आत्महत्या की एक आसान रास्ता नज़र आता है। इसका बड़ा कारण मानसिक स्वास्थ्य को लेकर सामाजिक वर्जना है। ‘लोग क्या कहेंगे’ से लेकर ‘तुम्हें चिंता किस बात की या फिर चिंता कैसे हो सकती है’ ऐसी दलीलें देकर मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे को हवा में उड़ा दिया जाता है।  पुन: सुशांत सिंह राजपूत की मौत के उदाहरण से करें तो उस दिन से मानसिक स्वास्थ्य संबंधी कुछ ऐसी तीव्र चर्चाएं हो रही हैं, जिसकी समाज को लम्बे समय से ज़रूरत थी। यू-ट्यूब पर ऐसी कुछ चर्चाओं का जो सकारात्मक पक्ष प्रभावी नज़र आया है, वह है कि लोग अपनी मानसिक बीमारियों को लेकर ‘बात’ करने लगे हैं। चर्चाओं के निचले कुमैंट सैक्शन में यह संख्या 3 हज़ार से 8 हज़ार है, जो समय के साथ और भी बढ़ रही है। कुछ लोग अपने तुजुर्बे सांझे करते यह बता रहे हैं कि वह कैसे एक मुश्किल दौर में से गुज़र कर अब मानसिक बीमारी से बाहर आ गए हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो पहली बार मन की गहरी परतों    के नीचे रखी अपनी समस्याओं संबंधी बोल रहे हैं। इससे पूर्व उनको शायद ऐसा अवसर या माहौल मिला ही नहीं कि वह अपनी बात किसी को कह सकें।  हालांकि करोड़ों की जनसंख्या में हज़ारों लोगों द्वारा की जा रही चर्चाओं का कोई बहुत बड़ा महत्त्व नहीं परन्तु शुरुआत हमेशा छोटे कदमों से ही होती है और प्रत्येक शुरुआत का स्वागत किया जाना चाहिए।
प्राथमिक संकेत
वास्तविकता में और भारत के संदर्भ में देखें तो अक्सर ‘आवश्यक’ कदम देर से या ज्यादातर कभी उठाए ही नहीं जाते। परन्तु ऐसा नहीं है कि मानसिक बीमारी को समय रहते पहचाना ही नहीं जा सकता। मानवीय फितरत  के अनुसार जीवन की चुनौतियों से दो-चार होते हुए कभी उदास होना, अकेला महसूस करना या फिर एकदम शांत होना काफी साधारण या नार्मल प्रक्रिया है। यह खराब मूड कुछ पलों, घंटों, दिनों या फिर कुछ दिनों तक हो सकता है। परन्तु जब मायूसी या यह दौर लम्बे समय तक जीवन को प्रभावित करने लगे तो यह मानसिक बीमारी के प्राथमिक संकेत बन जाते हैं। इन प्राथमिक संकेतों में नकारात्मक रवैया, कम या फिर ज़रूरत से अधिक नींद, बेचैनी, थकान, मनपसंद कामों में अचानक दिलचस्पी कम होना आदि शामिल हैं। अगर इन प्राथमिक संकेतों को अनदेखा कर दिया जाए तो स्थिति गम्भीर रूप धारण कर लेती है। मनोवैज्ञानिक रूही चावला के अनुसार यह लक्षण उस समय और भी खतरनाक हो जाते हैं जब आत्महत्या के भाव भी उसमें शामिल हो जाते हैं। डा. चावला के अनुसार आत्महत्या की खबर अचानक मिल सकती है, परन्तु इसका फैसला अचानक नहीं होता। आत्महत्या से पूर्व संबंधित व्यक्ति बातचीत के दौरान मौत का सीधा ज़िक्र अप्रत्यक्ष तौर पर करता है। स्वभाव में अचानक बदलाव भी इस बीमारी का संकेत हो सकता है। अचानक उदासी से एकदम शांत या खुश होने का दिखावा करने का प्रयास, रुका हुआ काम निपटाने की जल्दबाज़ी ऐसे कई संकेत हो सकते हैं।इन संकेतों को पहचानना सबसे अहम है, परन्तु त्रासदी यह है कि आधे से अधिक लोग इन संकेतों को नज़र अंदाज़ करते हुए पूरी उम्र इलाज से वंचित रहते हैं। आंकड़ों के पक्ष से कहें तो मानसिक दबाव के शिकार 10 व्यक्तियों में से 1 व्यक्ति आत्महत्या करता है। (शेष कल)