ऐसे कैसे सुलझेगी प्रवासी श्रमिकों की समस्या

देश में 25 मार्च से लॉकडाउन लागू किया गया ताकि संक्रमण की चेन तोड़ी जा सके, परन्तु शहरों में काम बन्द हो जाने से प्रवासी श्रमिक अपने घर पहुंचना चाहते थे। आम नागरिक व सरकार के विचारों में भिन्नता होना स्वाभाविक है, क्योंकि उनके उद्देश्य व वैचारिक स्तर अलग-अलग होते हैं। कुछ राज्य सरकारों ने उनके रुकने की समुचित व्यवस्था भी नहीं की और उन्हें जाने दिया। इससे कुछ लोग तो किसी भी तरह अपने-अपने घर पहुंच गये, परन्तु करोड़ों प्रवासी श्रमिक (सपरिवार) प्रवासी ही रह गये। केन्द्र सरकार के आग्रह पर यद्यपि राज्य सरकारों व स्वयंसेवी संस्थाओं ने उनके रहने व भोजन की व्यवस्था करने का प्रयास किया, परन्तु भारी भीड़ के लिए लम्बे समय तक ऐसा कर पाना असम्भव सा था। प्राय: नीतियों को धरातल पर अमली जामा पहनाना कठिन होता है, क्योंकि थ्योरी और प्रैक्टिकल में अन्तर होता है।जो प्रवासी श्रमिक घर पहुंचे, उन्होंने रास्ते में बहुत कष्ट भोगे। जो नहीं जा सके, वे अव्यवस्था से  दुखी हो गये। शरारती तत्व प्राय: व्यवस्था में विघ्न डालने का प्रयास करते हैं। राजनीतिक खींचतान भी भारतीय लोकतंत्र की पहचान है। इसका ब्यवस्था पर विशेष असर पड़ता है। लगभग 30 दिन के लॉकडाउन के बाद प्रवासी श्रमिकों की माँग पर केन्द्र सरकार ने मुख्यमंत्रियों से चर्चा कर उनकी घर वापसी के लिए नियमावली तैयार की। श्रमिक स्पेशल रेलगाड़यिं भी चलायी गयीं, और भारी संख्या में प्रवासियों को घर पहुंचाया गया।  प्रवासी श्रमिकों की कष्टपूर्ण घर वापसी या पलायन रूपी समस्या अस्थायी थी और अब लगभग हल हो चुकी है। केन्द्र सरकार ने उनके लिए मुफ्त राशन पैकेज व आर्थिक पैकेज की घोषणा भी की है। राज्यों में स्टार्ट अप्स, स्किल मैपिंग व माइग्रेशन कमीशन द्वारा उनके पुनर्वास पर भी विचार हो रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस विषय में राज्य सरकारों के लिए आदेश पारित किया है। मीडिया को भी अब अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे मिल गये हैं  परन्तु प्रवासी श्रमिकों की बुनियादी समस्या तो कुछ और ही है, जिसे समझना आवश्यक है।  मनरेगा से बहुतों को रोज़गार नहीं मिलता है। कुछ लोग अधिक मजदूरी के लालच में शहर चले जाते हैं। शहरों में स्वरोजगार, व्यापार, कंस्ट्रक्शन व उद्योग आदि में रोजगार के अवसर अधिक होते हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या के दबाव के कारण रोज़गार की मांग निरन्तर बढ़ रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश की जनसंख्या लगभग 35 करोड़ थी, जो अब बढ़कर 135 करोड़ हो गयी है। पहले उद्योग धन्धे बहुत कम थे, पर न इतनी बेरोजगारी थी, न करोड़ों प्रवासी श्रमिकों का सैलाब। मनरेगा का उद्देश्य ग्राम विकास के कार्यों का निस्तारण नहीं बल्कि रोज़गार सृजन करना है।  विचारणीय है कि कार्य के निस्तारण हेतु श्रमिक की ज़रूरत पड़ती है या श्रमिक के लिए कार्य की तलाश की जाती है। नि:सन्देह मनरेगा का सिद्धान्त ‘एब्सोल्यूट ओवर पापुलेशन’ को दर्शाता है जिसपर ध्यान नहीं दिया गया। आज कुछ बुद्धिजीवी व विपक्षी राजनेता कहते हैं कि बेरोजगारी 45 वर्षों में अधिकतम स्तर पर है। नि:सन्देह, अगले 5 वर्ष बाद यही कहेंगे कि बेरोजगारी 50 वर्षों में अधिकतम स्तर पर है। उच्च वर्गों के गरीब गांव में काम न करके श्रमिक के रूप में बड़े शहरों में पलायन कर गये। निम्न वर्गों में यह धारणा घर कर गयी कि उच्च वर्गों ने उनका शोषण किया है, इसलिए वे भी गांव छोड़कर बड़े शहरों में चले गये। स्थिति यह है कि गांवों में आज खेती में काम करने के लिए श्रमिकों की कमी है और मजदूरी मनरेगा रेट से अधिक है, परन्तु शहरों में चौराहों पर खड़े होकर श्रमिक काम की तलाश करते हैं। दशकों से ऐसा ही चल रहा है। आवश्यकता है कि जातिवाद आधारित राजनीति बंद हो और सामाजिक सौहार्द मजबूत किया जाये।