आत्म-निर्भरता के मायने तलाश करने की ज़रूरत

आजकल देश में सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों पर चीन का बहिष्कार करने की मुहिम चल रही है। इससे पहले कोविड-19 के परिणामस्वरूप जब देश की अर्थव्यवस्था पर वैश्वीकरण के दुष्प्रभाव सामने आने लगे थे, तब भी  प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भर भारत का मंत्र दिया था। उस समय यह मंत्र देश की अर्थव्यवस्था को दीर्घकालिक लाभ पहुंचाने की दृष्टि से उठाया गया एक मजबूत कदम था जो आज भारत- चीन सीमा विवाद के चलते बॉयकाट चायना का रूप ले चुका है। लेकिन जब तक हम आत्मनिर्भर नहीं बनेंगे, चीन के आर्थिक बहिष्कार की बातें खोखली ही सिद्ध होंगी। इसे मानव चरित्र का पाखंड कहें या उसकी मजबूरी कि एक तरफ  इनटरनेट के विभिन्न माध्यम चीनी समान के बहिष्कार के संदेशों से पटे पड़े  हैं तो दूसरी तरफ  इ-कॉमर्स साइट्स से भारत में चीनी मोबाइल की रिकॉर्ड बिक्री हो रही है। जी हां,,  16 जून को हमारे सैनिकों की शहादत से सोशल मीडिया पर चीन का बहिष्कार करने वाले संदेशों की बाढ़ ही आ गई थी। चीन के खिलाफ  देशभर में गुस्सा था तो उसके एक दिन बाद ही 18 जून को ई-कॉमर्स साइट्स पर चीन अपने मोबाइल की सेल लगाता है और कुछ घंटों में ही वे बिक भी जाते हैं। अगर भारत के मोबाइल मार्केट में चीनी हिस्सेदारी की बात करें तो आज की तारीख में यह 72 से 75 प्रतिशत के बीच है और यह अलग-अलग कम्पनी के हिसाब से साल भर में  6 प्रतिशत से 33 प्रतिशत की ग्रोथ रेट दर्ज करता है। लेकिन सिर्फ  आम आदमी ही चीनी समान के मायाजाल में फंसा हो, ऐसा नहीं है। देश की बडी-बडी कम्पनियां भी चीन के भ्रम जाल में उलझी हुई हैं, क्योंकि यहां सिर्फ  मोबाइल मार्केट की हिस्सेदारी की बात नहीं है। टीवी, अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से लेकर गाड़ियों के मोटर पार्ट्स, चिप्स, प्लास्टिक, फार्मा या दवा कम्पनियों द्वारा आयातित कच्चे माल की मार्किट भी चीन पर निर्भर है। यही कारण है कि चीन से सीमा पर विवाद बढ़ने के बाद जब भारत सरकार ने चीनी समान पर टैरिफ  बढ़ाने की बात कही तो मारुति और बजाज जैसी कम्पनियों को कहना पड़ा कि सरकार के इस फैसले का भार ग्राहक की जेब पर सीधा असर डालेगा। इन परिस्थितियों में जब हम आत्मनिर्भर भारत की बात करते हैं तो मंज़िल काफी दूर और लक्ष्य बेहद कठिन प्रतीत होता है। इसलिए अगर हम आत्मनिर्भर भारत को केवल एक नारा बना कर छोड़ने के बजाए उसे यथार्थ में आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं तो हमें जोश से नहीं, होश से काम लेना होगा। इसके लिए सबसे पहले हमें सच को स्वीकार करना होगा और सत्य यह है कि आज की तारीख में विज्ञान और टेक्नोलॉजी ही चीन का सबसे बड़ा हथियार है जिसमें हम चीन को टक्कर देने की स्थिति में नहीं हैं यानी हम बिना हथियार युद्ध के मैदान में कूद रहे हैं तो फिर जीतेंगे कैसे? दरअसल, युद्ध कोई भी हो, उसे जीतने के लिए अपनी कमज़ोरियां और ताकत दोनों का पता होना चाहिए। अपनी कमज़ोरियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए और अपनी क्षमताओं का दोहन। यह सच है कि आज की तारीख में विज्ञान और प्रौद्योगिकी हमारी कमज़ोरी है लेकिन भारत जैसे देश में क्षमताओं और संभावनाओं की कमी नहीं है और यही हमारी सबसे बढ़ी ताकत है । हमारी सबसे बढ़ी ताकत है हमारी कृषि और हमारे किसान दोनों को ही मजबूत बनाने की ज़रूरत है। सरकार ने इस दिशा में घोषणाएं भी की हैं लेकिन भारत की अफसरशाही का इतिहास देखते हुए उन्हें क्रियान्वित करके धरातल पर उतारना सरकार की मुख्य चुनौती होगी। हमारी दूसरी ताकत है हमारी सदियों पुरानी चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस देश में इस पूर्णत: वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति का उद्भव हुआ, उसी देश में उसे यथोचित सम्मानजनक स्थान नहीं मिल पाया। लेकिन वर्तमान कोरोना काल में इसने समूचे विश्व को अपनी ओर आकर्षित किया है। इस मौके का सदुपयोग कर आयुर्वेद की दवाइयों पर सरकार अनुसंधान को बढ़ावा देकर आयुर्वेदिक दवाओं को एक नए और आधुनिक स्वरूप में विश्व के सामने प्रस्तुत करने के लिए वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित कर सकती। इसी प्रकार आज जब पूरा विश्व प्लास्टिक के विकल्प ढूंढ रहा है तो हम पत्तों के दोने पत्तल बनाने के लघु उद्योगों को बढ़ावा देकर उनकी निर्यात योग्य क्वालिटी बनाकर ग्रामीण रोजगार और देश की अर्थव्यवस्था दोनों को मजबूती दे सकते हैं। हमारी भौगोलिक और सांस्कृतिक विरासत भी हमारी ताकत है। दरअसल, हर राज्य की सांस्कृतिक और भौगोलिक तौर पर अपनी विशेषता है। कुदरत ने जितनी नेमत इस धरती पर बख्शी है, उतनी शायद और किसी देश पर नहीं। अभी हमारे देश में विदेशी अधिकतर भारतीय अध्यात्म से प्रेरित होकर शांति की खोज में आते हैं लेकिन अगर हम अपने देश के विभिन्न राज्यों को एक टूरिस्ट स्पॉट की तरह दुनिया के सामने प्रस्तुत करने के लिए आवश्यक कदम उठाएं तो हमारी धरती ही हमारी सबसे बड़ी ताकत बन जाएगी। ये सभी उपाय अपने साथ देश में विदेशी मुद्रा भंडार और रोज़गार दोनों के अवसर साथ लेकर आएंगे।
अब बात करते हैं कमज़ोरियों की। हमारा सबसे कमज़ोर पक्ष है विज्ञान और टेक्नोलॉजी। आज के इस वैज्ञानिक युग में इस पक्ष को नज़रअंदाज़ करके विश्वगुरु बनने की बात करना बेमानी है। विश्व के किसी भी ताकतवर देश को देखें, उसने विज्ञान और टेक्नोलॉजी के दम पर ही ताकत को हासिल किया है चाहे वह जापान, चीन, रूस या अमरीका कोई भी देश हो। हम दावे जो भी करें, हकीकत यह है कि भारत इस क्षेत्र में इन देशों के मुकाबले बहुत पीछे है। पिछले तीन-चार सालों में हम कुछ कदम आगे बढ़े हैं लेकिन इन देशों से अभी भी हमारा फासला काफी है। इसलिए आवश्यक है कि भारत में वैज्ञानिक अनुसंधानों और वैज्ञानिकों, दोनों को प्रोत्साहन दिया जाए तथा टेक्नोलॉजी पर रिसर्च पर फोकस किया जाए। शिक्षा नीति में ठोस बदलाव किए जाएं ताकि कालेज से निकलने वाले युवाओं के हाथों में खोखली डिग्रियों की बजाय उनके दिलों में कुछ कर गुजरने का जज़्बा पैद हो, और यह तभी संभव होगा जब योग्यता से किसी प्रकार का समझौता नहीं किया जाए। जब प्रतिभावान युवा आरक्षण एवं भ्रष्टाचार के चलते अवसर न मिल पाने के कारण विदेशों में चले जाने को मजबूर नहीं हों।