असली रंग की तलाश

हम पचास साल तक जिस क्रीम को लगाने से अपना काला रंग गोरा हो जाने का आश्वासन लेते रहे, उसने अपना ये दिलासा वापस ले लिया है। भूख, बेकारी और बीमारी के इस  माहौल के इस विस्तार में सौंदर्य बोध नई करवट ले रहा है। गोरा रंग सौंदर्य का सूचक क्या इसलिए था कि दो सौ बरस तक इस देश पर गोरे लोगों ने राज किया और इस देश के करोड़ों गुलाम लोगों को अपनी बूट की नोक पर रखते हुए कहते थे, ‘यू ब्लडी काला लोग?’
चलिए, इस बीच युग बदल गया। जिन गोरे लोगों के राज में कभी सूरज नहीं डूबता था, वही डूबते सूरज के अंधेरों को अपने गले से लगाने के लिए विवश हो गये। सदियों तक गुलाम लोग सिर झुका कर सोचते रहे कि यह गोरा रंग ताम्बई रंगत के मेहनतकश मज़दूरों से अधिक ताकतवर, सुसंस्कृत और शिष्ट होता है। ताम्बई रंगत के लोग अपने आबनूसी स्पर्श के साथ इसके सामने आने से बचते रहे।  परन्तु तीसरी दुनिया के मेहनतकश मज़दूरों के धूप में तपे हुए चेहरों पर वातानुकूलित सुविधापरस्ती का तोहफा वह सफेद रंग तो कहीं झाईं भी नहीं मार सका बल्कि उनके आगे बढ़ते कदमों की धमक देखकर यह सफेद रंग आजकल पीला पड़ गया। अब वह बीमार सा लगने की उपमा का शिकार हो गया। 
भाई, बहुत शोर सुना था इन गोरे रंग वाले सम्पन्न अंग्रेज़ और पश्चिमी देशों के बाहुबलि होने का। कोरोना वायरस के प्रकोप ने इनके महानगरों के द्वारों पर दस्तक दी तो इनके सफेद रंग डर से पीले पड़ गये। तीसरी दुनिया के लोगों की कमअक्ली पर हंसने वाले महान विद्वान दवा की एक टिकिया, संक्रमण निरोधी एक टीका निकाल नहीं पाये और अब काले लोगों के आयुर्वेदिक काढ़ों और स्वदेशी दवाइयों की शरण तलाश रहे हैं।  खैर साहिब, हर बात में पश्चिम का रोना क्यों? उनका सौंदर्य बोध ठोकर खा गया तो संभल, बदल जाएगा। अपने शीर्षक में उन्होंने गोरे रंग की जगह स्वाभाविक रंग की तलाश शुरू कर ही दी है लेकिन हम असली रंग की तलाश कब करेंगे? 
कब समझेंगे कि मोर पंखी आडम्बर भरी ज़िन्दगी की जगह अपनी स्वाभाविक और निजी रंग की ज़िन्दगी जीना ही भला है। अपने देश में तो ऐसे लोग कम नहीं जो कौए होते हुए भी मोर की चाल चलने का प्रयास करते रहते हैं। बाद में पाते हैं, अरे हम तो अपनी चाल भी भूल गए। हम स्वप्रचार की बैसाखियों से उस सड़क पर चलने का प्रयास करते हैं जो कभी हमारी थी ही नहीं। 
बाहर देखो, जब देश पर कोई आपदा विपदा आती है, चाहे वह कोरोना वायरस हो या आसमान से उतरते हुए टिड्डी दल, उन्हें अपने राजप्रासादों पर इनके विध्वंसक तत्वों को उतरते देखते जीवन की निस्सारता का बोध होने लगता है। बिना पढ़े ऐसे लोग दार्शनिक बन जाते हैं और बिना काव्य प्रतिभा के महाकवि! अपनी बातें किसे सुनाएं? अब लोगों का मजमा जोड़ने की मनाही हो गई। विषाणुओं के भय से चेहरे नकाबों से ढक गए। अपनी वाणी का ओज, तेजस्वी चेहरे का तेवर किसे दिखाएं, बड़ी समस्या है। 
वे सोशल मीडिया की ओर देखते हैं। इंटरनेट, जूम कांफ्रैंस, वैबनार से पनाह मांगते हैं, लेकिन भाई जान, जो मज़ा शोभायात्राओं में अपनी जयजय सुनने, गले में मालाएं डलवाने, अभिनंदन के शाल ओढ़ कर दर्शकों की तालियों की करतल ध्वनि सुनने का था, वह भला  वैबनार में एक दूसरे का चेहरा घूरने में कहां?
इसलिए अब जैसे आकर्षण की परिभाषा में से सफेद रंग का अवमूल्यन हो गया, वैसे इन ईडियट बाक्सों में से एक दूसरे के साथ बतियाने का हो गया। लो, नये उभरे विषाणु जगत ने न जाने कितनी मान्यताओं के चेहरे बदल दिए। पहले किराये की भीड़ जुटा मनचाहे मुख्य अतिथि को महामानव बना उससे आशीर्वाद पा स्थापना का मेला जम जाता था।  अब तो केवल सफेद रंग ही सुन्दर क्यों? यह साबित करना कठिन नहीं हो गया। इस तरह भीड़ जुटा अभिनंदन, किराये के वक्ताओं से अपनी प्रशंसा के कसीदा पढ़वाना भी बासी हो गया।  ई-सम्मेलन के नाम पर एक दूसरे के चेहरे को घुरना अपने को बढ़िया और दूसरे को घटिया बताना भी अब कुछ जंचता नहीं। बाहर समाज सेवा के लिए वंचित को लंगर बांटने निकले थे, तो डरी भीड़ जुटती नहीं। नकाब हटा कर चित्र खिंचवायें तो शोर हो जाता है, लीजिए साहब, इन्होंने सामाजिक अन्तर कानून का पालन नहीं किया।  बहुत दिक्कत हो गई साब! वक्त कुछ इतनी तेज़ी से बदल गया कि पुराने तरीके अब किसी काम के न रहे। लोग डरते हुए घरों से बाहर नहीं निकलते। न दुकानों पर भीड़ है, न सड़कों पर आवागमन। 
समाज सेवा छोड़ो अब तो देश रक्षा के लिए लोग नहीं जुटते। हमने तो ‘देश खतरे में है’ के नारे भी लगा लिए। आपने एक पुरानी फिल्म ‘जागते रहो’ देखी होगी। एक बहुमंज़िली  इमारत में पानी की तलाश में एक प्यासा देहाती चला आया था। महानगर के सम्भ्रान्त लोग उसे चोर मान उसके पीछे लग गए। चोर पकड़ने के लिए शहरी शूरवीरों की कतार लग गई। इस कतार के पीछे वह कमज़ोर प्यासा देहाती भी खड़ा था। कतार ज़ोश से चोर पकड़ने के लिए नारा लगाती थी, ‘जान लड़ा देंगे।’ कतार में आखिरी बूढ़ा भी कांपती आवाज़ में कहता था, हां जान लड़ा देंगे। लेकिन कब तक। 
जैसे कहता हो, हां अवश्य। महामारी तो भगाओ, टिड्डियों का सफाया करो, देश की सरहदों से आतातायी शत्रु निकालो। लेकिन उसे बहुत भूख लगी है। आधी सदी से उसके पास कोई काम नहीं। पहले उसके भूखे पेट के लिए दो रोटी और खाली हाथों के लिए काम का तो प्रबंध कर दो। फिर नारे लगाना।