किसी पर अधिक, किसी पर कम क्यों है कोरोना का असर ?

नये कोरोना वायरस से दो व्यक्ति ‘अ’ व ‘ब’ एक साथ संक्रमित हुए। दोनों समान आयु व लिंग के थे। दोनों को कोई अन्य बीमारी जैसे हाई ब्लड प्रेशर, मधुमेह आदि में से कुछ भी नहीं था। दोनों का एक ही उपचार केंद्र में इलाज हुआ, एक सी दवा व आहार दिया गया लेकिन ‘अ’ ठीक होकर घर लौटा और ‘ब’ की मृत्यु हो गई। सवाल उठा कि कोविड-19 ‘अ’ के लिए ‘ब’ जितना घातक क्यों नहीं था? यह प्रश्न केवल इन दो रोगियों को लेकर नहीं है बल्कि हर देश व हर जनसंख्या में इसी सवाल का महत्व हो गया है कि नया कोरोना वायरस ‘यूनिफार्म फेनोमिना’ (यानी सब पर एक तरह का असर डालने वाला) क्यों नहीं है? मेरठ से मेक्सिको तक बस एक ही सवाल है कि नया वायरस संक्रमण कुछ को हल्के में क्यों छोड़ देता है और कुछ पर गहरी पकड़ क्यों बनाता है? 
यह सही है कि बढ़ती आयु व कोई अन्य बीमारी इस संक्रमण को अधिक खतरनाक बना देती है, लेकिन इन स्थितियों के अभाव में भी कोविड-19 से कुछ को कम तो कुछ को अधिक खतरा है। ऐसा क्यों है? वैज्ञानिक अब इसी प्रश्न का उत्तर खोजने में लगे हुए हैं। जिस तरह से कैंसर के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि किसको हो जाये, किसको न हो और कौन ठीक हो जाये, कौन न हो। कुछ यही बात नये कोरोना वायरस के संदर्भ में भी कही जा सकती है। हालांकि उक्त प्रश्न का कोई सर्वमान्य उत्तर तो अभी सामने नहीं आ सका है, लेकिन वैज्ञानिकों ने कुछ थ्योरी अवश्य दी है।
संक्रमण की तीव्रता शायद इस बात पर निर्भर करती है कि व्यक्ति किस प्रकार संक्रमित होता है। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि ‘एयरोसोल ट्रांसमिशन’ शायद अधिक घातक है, जिसका अर्थ है कि अति सूक्ष्म ड्रॉपलेट्स जो हवा में अधिक देरी तक लटके रहते हैं, वे अधिक खतरनाक होते हैं उन भारी ड्रॉपलेट्स की तुलना में जो छींकने, खांसने व बोलने से बाहर निकलने पर किसी सतह पर ठहर जाते हैं। शरीर के पास बड़े बाहरी ड्रॉपलेट्स को ब्लॉक करने की व्यवस्था तो होती है, लेकिन यह अति सूक्ष्म एयरोसोल ड्रॉपलेट्स फेफड़ों में गहराई तक पहुंच जाते हैं, जहां वायरस फेफड़ों के अन्य हिस्सों की तुलना में अधिक मजबूत पकड़ बना लेता है।
एक अन्य तत्व यह है कि वायरस का कितनी मात्रा में ट्रांसमिशन हुआ है, जिसे वायरस लोड कहते हैं। संक्रमण के समय अगर अधिक मात्रा में कोरोना वायरस का ट्रांसमिशन हुआ है तो अधिक गंभीर बीमारी हो सकती है। शायद यही वजह है कि कुछ फ्रंटलाइन हेल्थकेयर वर्कर्स को कोविड-19 से अधिक गंभीर बीमारी हुई है जबकि उन्हें कोई अन्य रोग भी नहीं था। वायरल लोड के सिद्धांत से सोशल डिस्टेंसिंग का महत्व समझ में आ जाता है यानी स्त्रोत से आप जितना दूर होंगे, उतना ही कम वायरस लोड आप तक पहुंचेगा। शरीर में प्रवेश करने के बाद कोरोना वायरस कोशिकाओं में एसीई-2 रीसेप्टर्स के जरिये प्रवेश करता है, जोकि फेफड़ों की कोशिकाओं, ब्लड वेसल्स, आंतों, गले के पिछले हिस्से और नाक की सतह पर होते हैं। 
चूंकि बच्चों में एसीई-2 रीसेप्टर्स कम होते हैं इसलिए उन्हें संक्रमण का कम खतरा होता है, ऐसा अनेक अध्ययनों में कहा गया है। उक्त प्रश्न का उत्तर शायद रक्त से मिल जाये। एक यूरोपीय अध्ययन में कहा गया है कि ब्लड टाइप को निर्धारित करने वाली एबीओ जीन कोविड-19 रोगियों में सांस लेने में कठिनाई को समझाने में मदद कर सकती है। जो ‘ए’ ब्लड ग्रुप के रोगी हैं, उनको ऑक्सीजन या वेंटीलेटर की 50 प्रतिशत अधिक आवश्यकता है, ‘ओ’ ब्लड ग्रुप रोगियों की तुलना में। ‘ओ’ ब्लड ग्रुप के लोगों में संक्रमण की तीव्रता कम देखी गई है। ‘ए’ ब्लड ग्रुप के रोगी में छोटे ब्लड क्लोट्स भी विकसित हो जाते हैं, जो इस वायरस का अधिक गंभीर लक्षण है। जीन की भूमिका अभी अस्पष्ट है, लेकिन एक विशेषज्ञ का कहना है कि इसका संबंध उस सूजन से है जो इम्यून सिस्टम के वायरस से लड़ने पर उत्पन्न होती है। 
चीन के शोधकर्ताओं ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के जरिये उन 22 प्रोटीन की पहचान की जो गंभीर कोविड-19 रोगियों के रक्त में साझा तौरपर थीं। यह टैस्ट यह पहचान करने की क्षमता रखता है कि कौन रोगी आगे चलकर गंभीर हो सकता है। वैज्ञानिक उक्त प्रश्न का उत्तर जीन्स में तलाश करने का प्रयास कर रहे हैं। शोधकर्ताओं का एक अंतर्राष्ट्रीय समूह उन जेनेटिक वैरिएंटस की निशानदेही कर रहा है जो 40 वर्ष से कम उम्र के उन रोगियों में साझा हैं जिनको पहले से कोई बीमारी नहीं थी। पहले से ही यह अध्ययन मौजूद हैं कि कुछ जेनेटिक म्युटेशन के कारण लोग इंफ्लुएंजा जैसे संक्रमित रोगों का अधिक शिकार होते हैं।
यह बात अब किसी से छुपी हुई नहीं है कि जिन लोगों को पहले से ही हृदय रोग, मधुमेह, मोटापा आदि रोग हैं, उन पर कोरोना वायरस का हमला गंभीर होता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि अगर यह समझ लिया जाये कि कोई खास बीमारी कोविड-19 के रोगियों को कैसे प्रभावित करती है तो इलाज के तरीके बेहतर बनाये जा सकते हैं। मसलन, जो मोटे व्यक्ति 60 वर्ष से कम के हैं, उनको कोरोना वायरस से आईसीयू में जाने का अधिक खतरा है। मोटा व्यक्ति वह है जिसका बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) 30 से 34 है और अगर 35 है तो मरने का खतरा तीन गुना अधिक है। अधिक आयु भी खतरा ज्यादा बढ़ा देती है क्योंकि उम्र के साथ इम्यून सिस्टम अधिक कमज़ोर होने लगता है।
रोगों का मुकाबला करने के लिए कुछ लोगों का इम्यून सिस्टम अन्य की तुलना में अधिक बेहतर होता है लेकिन कभी कभी इम्यून सिस्टम बैकफायर भी कर देता है। बीमारी के समय शरीर साइटोकाइन्स उत्पन्न करता है जो इम्यून सिस्टम प्रतिक्रिया को निर्देश देते हैं। अगर पर्याप्त साइटोकाइन्स नहीं हैं तो इम्यून प्रतिक्रिया रोग को पराजित करने के लिए पर्याप्त नहीं होगी। लेकिन अगर शरीर अत्याधिक साइटोकाइन्स का उत्पादन कर दे तो इम्यून सिस्टम का ओवररिएक्शन हो जाता है, जिसे साइटोकाइन स्टॉर्म कहते हैं, जिसमें इम्यून सिस्टम शरीर पर ही हमला करने लगता है, जिससे कुछ मामलों में मौत भी हो जाती है। नया कोरोना वायरस एक व्यक्ति पर कम और दूसरे पर अधिक शिद्दत से वार करता है, क्यों? इसका उत्तर अभी तलाशा जा रहा है। हालांकि यह ‘उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से अधिक सफेद क्यों’ का जवाब देने जितना सरल नहीं है, लेकिन उत्तर देर सवेर मिल ही जायेगा।
           -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर