कोरोना काल : कुछ लोगों की भूल की सज़ा 

कोरोना वायरस का इस समय तहलका मचा हुआ है। लोग घबराए हुए, डरे हुए, बंद रहने से उकताए हुए और आर्थिक हालात से निराश है। पूरी दुनिया जैसे एक बिंदु पर ठहर गई है। अमरीकी राष्ट्रपति ने आरंभ में ही एक लाख लोगों के खोने की बात सोच ली थी। शायद सबसे अधिक नुक्सान भी वहीं हुआ क्योंकि वहां लाकडाउन इतनी तेज़ी से नहीं लागू किया गया ताकि आर्थिक दशा इतनी न बिगड़ जाए कि सम्भालना कठिन हो जाए। घातक बीमारियों के हमले लोगों ने पहले भी देखे हैं। 2002-04 में सार्स रोग फैला, फिर सोनिश फ्लू, एच.आई. वी. एड्स। वैस्टरन अफ्रीका में इबोला वायरस (2007), 2015-16 में जीका वायरस, 1957-58 में का इफ्लूज़ा हमला भुलाया नहीं जा सकता। हर बार आदमी की आदमियत ने अपने आस-पास फैलते रोगों से खुद को बचाया। संघर्ष आदमी का पहला आधार रहा, संघर्ष और एकजुटता। जब हमने इतनी बार भयानक रोगों का सामना ही नहीं किया, उन्हें हराया भी है, तब आज भी कोरोना के साथ एकजुट होकर लड़ा जा सकता है और इसे हराया भी जा सकता है। जब पूरे भारत की केन्द्रीय और प्रांतीय सरकारें सजगता के साथ निर्देश जारी कर रही थीं कि आपसी फासला बनाए रखें। सीनियर सिटीजन सैर के लिए पार्क में न जाकर घर पर ही रहें और कहीं भी सामूहिक रूप में पच्चीस  से अधिक लोग इकट्ठा न हों। तब निज़ामुद्दीन में तबलीगी जमात के सैंकड़ों लोग जमा होकर एक आंदोलन में शामिल हुए जिनमें कुछ लोग कोरोना वायरस के पाज़िटिव थे।   प्रचार के बावजूद वे लोग टैस्ट रिपोर्ट या डाक्टरी मदद के लिए सामने नहीं आए और पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान में जहां-जहां गये और कोरोना वायरस के साथ गए। जब समझाने या पकड़ने पर अस्पतालों मे ंलाए गए तो उनमें से कुछ ने प्रतिक्रिया स्वरूप डाक्टरों, नर्सों के साथ गलत व्यवहार किया। परन्तु इन लोगों को यह सोचना चाहिए था कि उनका अभद्र व्यवहार उनकी कौम को भी प्रभावित कर सकता है। हमारा देश धर्मनिरपेक्ष देश है। बताया गया है कि धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा धार्मिक आस्था और इन्सानी तर्कशक्ति के बीच टकराव से पैदा हुई है। यह टकराव मध्ययुग के उत्तरार्ध में सतह पर आया था। एतिहासिक रूप से यह यूरोप में आपस में जुड़ी दो बड़ी प्रक्रियाओं से संबंध रखता है जिसमें पहली प्रोटेस्टेंटवाद के भीतर अध्यात्मवादी विकास जिसने ईश्वर द्वारा स्थापित कुदरत के नियमों की तलाश के रूप में वैज्ञानिक खोजबीन को मान्यता दी। फिर यूरोप में कुछ बदलाव तीस वर्षीय युद्ध के खात्मे के साथ आरंभ हुआ। अक्तूबर 1789 में चार्ल्स मारिस दे लायेरैंड ने फ्रांस एम्बैसी में घोषणा की कि चर्च की व्यापक सम्पति  वेतन के बदले में राज्य के हवाले कर दी जाए। धर्म के साथ राजनीति संबंध अलग मोड़ ले गए।  धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग 1851 में इंग्लैंड के एक समाज सुधारक जार्ज होलियोक के माध्यम से हुआ। होलियोक की मान्यता थी कि सरकार को मेहनतकश और गरीबों के लाभ के लिए काम करना चाहिए। उनके इस्तेमाल में धर्म निरपेक्षता का अर्थ धर्म के खिलाफ नहीं था। हमारे संविधान में जो धर्म निरपेक्षता की अवधारणा है, वह पश्चिम की अवधारणा से अलग है। संविधान में सभी नागरिकों को मौलिक अधिकार के रूप में धर्म कि आज़ादी की गारंटी दी गई। पहली नज़र में ही यह किसी दूसरे संविधान की तरह धर्म-निरपेक्ष नज़र आता है। धार्मिक आज़ादी का मतलब है सोचने, बोलने, विश्वास, आस्था और पूजा की आज़ादी। क्या सामाजिक समरसता का मतलब सभी धर्मों का सम्मान नहीं है। धर्म-निरपेक्षता का उल्लघंन होता है चुनाव काल में। सभी का लक्ष्य सीट जीतने का होता है। तब कौन कहां से खड़ा होगा, का फैसला करते हुए मुस्लिम वोट , हिन्दू वोट का ध्यान रखा जाता है।