बरकरार है चीन का अड़ियल रवैया

भारत और चीन के बीच सीमाओं पर बने तनाव को सात सप्ताह से भी अधिक समय हो चुका है। दोनों देशों की सेनाएं पूर्वी लद्दाख में अनेक स्थानों पर एक-दूसरे के बिल्कुल आमने-सामने खड़ी हैं। 22 जून को दोनों देशों के सैनिक अधिकारियों में पूर्वी लद्दाख के गलवान, पैंगोंग सो तथा सम्बद्ध अन्य क्षेत्रों से सेनाएं पीछे हटा लेने संबंधी उच्च स्तरीय बातचीत हुई थी। पिछले मंगलवार को दोनों देशों के बड़े सैनिक अधिकारियों के मध्य 12 घंटे तक तीसरी बार बातचीत हुई, जिसके अच्छे परिणाम निकलने की उम्मीद नहीं है। इसके विपरीत प्राप्त समाचारों के अनुसार चीन ने सीमाओं पर सैनिक तैनाती बढ़ा दी है तथा इसके साथ ही वहां सभी प्रकार के हथियारों का जमावड़ा भी कर लिया है, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह अपने रुख से पीछे नहीं हटेगा। यह रवैया उसने विगत लम्बी अवधि से अपनाया हुआ है। 1962 में भारत पर हमले के समय उसने जिन भारतीय क्षेत्रों पर कब्ज़ा किया था, उनसे भी वह अभी तक पीछे नहीं हटा। आश्चर्य की बात है कि चीन तो इस कब्ज़े के बाद अब तक टस से मस नहीं हुआ, परन्तु भारत ने इसके बावजूद उससे अपनी पींगें बढ़ाना जारी रखा था। अपमान की स्थिति में भी भारतीय नेता सरकारी तौर पर चीन के दौरे क्यों करते रहे हैं? इसी लम्बी अपमानजनक स्थिति में भारत ने इस देश के साथ सभी प्रकार की अपनी सांझेदारी क्यों बढ़ाई? इससे यह बात भी स्पष्ट होती थी कि ज़बरदस्ती भारतीय इलाके पर उसने जो कब्ज़ा किया था, भारत उसे स्वीकार कर रहा था तथा यदि नीति यही रही तो इससे आगे जिन भारतीय इलाकों में वह अपना हक जता रहा है, कल को भारत उन इलाकों पर भी विवशता में चीन का अधिकार मान सकता है। कम से कम पिछले दशकों में तो चीन का ऐसा ही विश्वास बना दिखाई देता रहा है, परन्तु अब भारत ने चीन के समक्ष खड़ा होने तथा डटे रहने की जुर्रत अवश्य दिखाई है। भूटान की सीमा पर ऐसी ही दृढ़ता डोकलाम के मामले पर भी भारत की ओर से दिखाई गई थी। अब भी अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए तथा चीन की हठवादी नीयत एवं नीति को उसका स्थान दिखाने की जुर्रत भारत कर रहा है। इसीलिए पिछले 6 सप्ताह से सीमाओं पर दोनों देशों का यह हठ जारी है। 15 जून को गलवान घाटी में हुये रक्तिम संघर्ष में भारत के 20 सैनिकों के शहीद होने के बाद भारत ने चीन के प्रति कठोर रवैया अपनाते हुये उससे अपना व्यापारिक एवं अन्य सभी तरह का सहयोग घटाने का फैसला किया है। पिछले दिनों 59 चीनी मोबाइल एप्स पर पाबन्दी लगाना इसी कड़ी का एक हिस्सा है। इससे पहले चीनी साइकिल एवं उनके कल-पुर्जों की सप्लाई रोक दी गई थी। भारत चीन से 2 हज़ार करोड़ रुपये के साइकिल एवं उनके कल-पुर्जे वार्षिक खरीद करता आ रहा है जिन्हें अब रोक दिया गया है। भारतीय रेल ने चीन की कम्पनियों के साथ किये गये ठेके रद्द कर दिए हैं। तकनीकी क्षेत्र में उसकी बड़ी वैमानिक कम्पनी को 5-जी की सेवा से बाहर कर दिया गया है। खाद्य मंत्रालय ने चीन से सारा आयात बंद कर दिया है। सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्योगों के क्षेत्र में चीनी निवेश को पूरी तरह से बंद करने की योजना बनाई गई है। चीनी मीडिया पर भी पाबंदियां लगाने की कार्रवाई की गई है। सड़क यातायात के भी बहुत-से करार रद्द कर दिये गये हैं।चीन को लेकर भारत की ओर से किये जा रहे इन फैसलों का क्या असर पड़ता है, इस संबंध में तो अभी कोई वास्तविक अनुमान नहीं लगाया जा सकता, परन्तु भारत की ओर से चीन के साथ असहयोग का दिया गया स्पष्ट संकेत अपने आप में ही महत्त्वपूर्ण है। चंदरे पड़ोसी को अपने से दूर रखने की नीति ही इस समय ठीक मानी जा सकती है। आज अमरीका, आस्ट्रेलिया, यूरोपीय देशों के अतिरिक्त वियतनाम, जापान, सिंगापुर, मलेशिया और थाइलैंड आदि देश चीन की  दबंग नीतियों से तंग आ चुके हैं। विश्व भर के अधिकतर देशों में चीन के प्रति अविश्वास उत्पन्न हो रहा है। ऐसी भावना का पैदा होना ही अपने आप में यह स्पष्ट करता है कि विश्व के भिन्न-भिन्न देशों खास तौर पर अपने पड़ोसियों के प्रति चीन का रवैया सकारात्मक एवं संतुलित नहीं है। कल को उसके विरुद्ध उत्पन्न होती जा रही ऐसी भावना ही उसकी ओर से लगाई जा रही ऊंची उड़ानों को सीमित करने के समर्थ होगी।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द