आर्थिक उत्थान हेतु मोदी सरकार की पहल

मोदी सरकार के निरंतर व एकजुट प्रयासों ने कोविड-19 संकट के दौरान बहु-क्षेत्रीय सुधारों की प्रक्रिया प्रारंभ की है, जो अत्यंत आवश्यक आर्थिक पुनरुत्थान की दिशा में उठाया गया एक स्वागत योग्य नीतिगत कदम है। विगत कुछ समय के दौरान घोषणाओं की बाढ़ से यही संकेत मिलता है कि भारत सरकार विभिन्न क्षेत्रों में सुधारों के क्रियान्वयन हेतु मिशन मोड में है। यह निश्चित तौर पर इस महामारी व लम्बे लॉकडाऊन के अर्थ-व्यस्था पर पड़े विनाशकारी प्रभावों के साथ दो-दो हाथ करने के लिए सही पहुंच है। वैसे, अन्त में यह सब कुछ सरकार द्वारा विगत कुछ सप्ताह के दौरान लिए गए निर्णयों व नीतियों को बुनियादी स्तर पर क्रियान्वित करने पर निर्भर करेगा। विशेष रूप से दो हालिया ऐतिहासिक सुधारों में से एक वित्तीय क्षेत्र से संबंधित है तथा दूसरा 15,000 करोड़ रुपए की लागत से ‘पशु पालन बुनियादी ढांचा विकास फंड’ एएचआईडीएफ स्थापित करने से संबंधित है। वित्तीय क्षेत्र का सुधार छोटे निवेशकों व सहकारी बैंकिंग प्रणाली में जमा-खातेदारों का विश्वास बहाल करने हेतु तैयार किया गया है तथा ऐसा अवश्य होगा भी। मुझे विश्वास है, इससे इसमें लम्बे समय के लिए पारदर्शिता व जवाबदेही आएगी। भारत सरकार द्वारा एक अध्यादेश जारी करके 1,482 शहरी सहकारी बैंकों व 58 बहु-राज्य सहकारी बैंकों को सीधा व पूर्णतया भारतीय रिज़र्व बैंक के पर्यवेक्षण के अंतर्गत लाने के निर्णय की काफी समय से प्रतीक्षा की जा रही थी। वास्तव में सहकारी बैंकिंग के क्षेत्र में पाई गईं कुछ अनियमितताओं के चलते ऐसा करना अत्यंत आवश्यक हो गया था। अधिकतर सहकारी बैंकों को अब तक पेशेवर बैंकरों द्वारा संचालित नहीं किया जा रहा था। अफसोस की बात यह भी है कि वे सब भारतीय रिज़र्व बैंक के विनियमों व दिशा-निर्देशों के घेरे से बाहर थे अत: उनकी खराब देखरेख व घटिया कार्य-निष्पादन का कारण सहज रूप से समझ में आता है। इसी कारणवश देश की सहकारी बैंकिंग प्रणाली एक तरह से पूर्णतया तहस-नहस हो कर रह गई तथा इस सब के बीच जवाबदेही की कमी के सब से बड़ा शिकार देश के निर्दोष जमा-खातादार बन गए। मैं यह भी समझता हूं कि सहकारी बैंक उस ग्रामीण भारत में अपनी सेवाएं दे रहे हैं, जहां प्रमुख बैंक नहीं पहुंचे थे। इसी लिए उन्हें कुछ छूट व ढील की आवश्यकता थी। यह तो हाल ही में देखने को मिला था कि माईक्रफाइनांस, ़गैर-बैंकिंग एवं फिनटैक कंपनियां दूर-दराज के क्षेत्रों में भी ग्रामीण व हाशिये पर पहुंच चुके ग्राहकों को बहुत बढ़िया ढंग से विभिन्न वित्तीय सेवाओं की पेशकश देकर अपने बढ़िया कार्य-निष्पादन की छाप छोड़ने के योग्य हो गई थीं। इस उभर रहे नव-भारत में, सहकारी बैंक ऐसे अस्पष्ट व विशाल ढांचे बन कर रह गए हैं, जो अब बहुत कम ग्राहकों को अपनी सेवाएं दे पाते हैं तथा उनमें से भी बहुतेरों में उन थोड़े से खातेदारों के साथ भी ठगी व धोखाधड़ी की घटनाएं घटित हो रही हैं।भारतीय रिज़र्व बैंक के पर्यवेक्षण में अब सब कुछ बेहतरी हेतु परिवर्तित होने जा रहा है तथा अध्यादेश से सहकारी बैंकों में अधिक पारदर्शिता, जवाबदेही व पेशेवर पहुंच स्थापित होगी तथा इसके साथ ही जमा-खातादारों व ग्राहकों का विश्वास सशक्त होगा तथा उनकी बचतों की सुरक्षा सुनिश्चित होगी। कृषक उत्पादक संगठनों (एफपीओज़) एमएसएमईज़ व उद्यमियों सहित उद्योग को केवल 10 प्रतिशत मार्जिन मनी ही लगाने की आवश्यकता है। शेष 90 प्रतिशत धन अनुसूचित बैंकों द्वारा ऋण के रूप में उपलब्ध करवा दिया जाएगा। इस विशेष सुधार द्वारा ही उद्योग न केवल आगे आने हेतु उत्साहित होंगे, अपितु इससे गांवों के आम निवासी, किसान, युवा व स्व-सहायता समूह (एसएचजीस) उद्यमता हेतु उत्साहित होंगे। इससे अनुमानित 35 लाख से अधिक लोगों को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष तौर पर आजीविका के संसाधन मुहैया होंगे।मेरे विचार में, नाबार्ड द्वारा संचालित 750 करोड़ रुपए का क्रैडिट गारण्टी फण्ड स्थापित करने की व्यवस्था के साथ भी एमएसएमईज़ व ग्रामीण उद्यमी समस्त विश्व-परिदृश्य में इस क्षेत्र को बड़े स्तर पर और प्रतियोगी बनाने हेतु उत्साहित होंगे।यह कहने की आवश्यकता नहीं कि सरकार के ये दो वर्णनीय सुधार इस प्रमुख लक्ष्य को दर्शाते हैं कि प्रभावपूर्ण सुधारों के द्वारा आर्थिक पुनरुत्थान सही होगा तथा भारत को आत्म-निर्भर बनाने की सरकार की इच्छा व इसे हासिल करने की योग्यता का महत्त्व उजागर होगा।

-अध्यक्ष, भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) उत्तर क्षेत्र।